बोध कथा: शराब पीने दे मस्जिद में (Sharab Peene De Masjid Mein)
कहाँ बैठ कर पी जाये शराब?
इसपर ग़ालिब, मीर, इकबाल, फराज़ और वसी की उर्दू शायरी लिए एक मज़ेदार कहानी
पिछली टेलटाउन कहानी: सिक्के के दो पहलु
“धूप चढ़ रही है,” शांक ने कहा| “गर्मी लग रही है|”
“हाँ यार,” रोष बोला| “पसीने छूट रहे हैं| हैट लाना चाहिए था|”
“नदी का पानी मस्त ठंडा होगा,” शांक ने कहा|
“सो तो है,” रोष ने हामी भरी|
कोसी नदी के बीचो-बीच बने गर्ज़िया देवी के मंदिर को देखने के बाद, दोनों दोस्त नदी के किनारे-किनारे अपनी पिकनिक का सामान लिए, बड़े-बड़े चिकने पत्थरों पर उछलते-कूदते, तेज़ी से जंगल की ओर बढ़े जा रहे थे|
“नहा लें,” शांक ने पूछा|
“यहाँ?” रोष को हैरानी हुई|
“और कहाँ?”
“कपड़े तो लाये नहीं!”
“तो कपड़े उतार के नहा लेते हैं!”
“किसी ने नंगे देख लिया तो? श्रद्धालू हैं, गाँव वाले हैं| बहुत मार पड़ेगी...”
“वो तो उस मोड़ के पीछे रह गए सब| यहाँ कौन है हमें नंगे देखने वाला? ये भैंसे? ये भी तो नंगी हैं| काश कि ये नंगी लड़कियाँ होतीं| अबे घोंचू, डर मत| पानी में रहेंगे, ढके रहेंगे|”
रोष को बात जंच गयी| गर्मी उसे भी लग रही थी, और आजकल तैरने का कोई अवसर भी वो छोड़ता नहीं था| उसने नया-नया तैरना सीखा था| और ये जगह तैरने के लिए भी सुरक्षित लग रही थी|
दोनों दोस्त सारे कपड़े उतार कर, उन्हें नदी किनारे अपने सामान से ठीक से दबा, पानी में उतर गए|
तपते सूरज से ठन्डे-ठन्डे पानी में एकदम उतर कर बहुत राहत मिली| रोष अपनी ज़िन्दगी में पहली बार खुले में नंगा नहा रहा था| शर्म भी आ रही थी, डर भी लग रहा था, पर मज़ा भी आ रहा था|
“बियर पानी में डाल देते हैं सारी,” शांक ने सुझाव दिया| “मस्त ठंडी हो जायेगी| नहाते-नहाते पी लेंगे, नहीं तो बाद में गर्म पीनी पड़ेगी|”
कमाल का आईडिया था| लेकिन मुकद्दस जगह थी| रोष यहाँ पीने के ख़याल से हिचक रहा था|
शांक उसकी उलझन भांप गया| हंसकर बोला, “सुना है, मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है:”
ज़ाहिद शराब पीने दे, मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे, जहाँ पर ख़ुदा न हो
रोष मुस्कुरा उठा| दोनों दोस्त किनारे गए, सारी बियर बोतलें थोड़ी-थोड़ी करके नदी में ले आये, और छिछली नदी की तली के पत्थरों के बीच, उन्हें अच्छे से अटका दिया|
पलक झपकते ही बियर ठण्डी हो गयी| हँसते-बतियाते, बियर पीते, नहाते-तैरते कितना वक़्त बीत गया, कोई पता न चला| जैसे-जैसे धूप चढ़ रही थी, नशा भी चढ़ रहा था|
“काश कि मस्जिद में बैठ कर पीने का हमारा भी जिगरा होता,” रोष झूमते हुए कह रहा था| “एक दिन पियेंगे!”
“हम यहीं ठीक हैं बे,” शांक ने नयी बोतल खोलते हुए कहा| “अब एक ही और बची है| मस्जिद में और लोगों ने मांग ली, तो हम क्या ढक्कन सूंघेंगे ...”
“मस्जिद में कौन मांगेगा बे हमसे?” रोष ने नशे में झूलते हुए अपने दोस्त को समझाया| “बात वो नहीं है...”
“शराब पी के तो आदमी वैसे ही खुदा को भूल जाता है,” शांक ने उसकी बात काटी| “तो फिर वो हो वहां, न हो, क्या फर्क पड़ता है| उसकी मौजूदगी या न-मौजूदगी का तो कोई मसला ही नहीं रहता|”
“वो तो पी लेने के बाद की बात हुई न,” रोष बोला| “मसला तो ये है कि पीना शुरू करने के लिए महफिल कहाँ जमाई जाए| नशे में गाली बकने वाले को माफ़ी है, होश में गली बकने वाले को नहीं...”
“तेरी प्रॉब्लम तो मुहम्मद इकबाल ने सौ साल पहले ही हल कर दी थी, यार” शांक ने हांक लगायी| “क्या कहता है इकबाल, ले सुन:”
मस्जिद ख़ुदा का घर है, पीने की जगह नहीं
काफिर के दिल में जा, वहाँ पर ख़ुदा नहीं
“वाह वाह ... क्या बात है शांक!” मौके की शायरी सुनकर रोष ने दाद दी| “अल्लाह काफिर के दिल में होता, तो काफिर काफिर ही कहाँ रह जाता? बेशक, बहुत बढ़िया शेर है|”
“लेकिन यार, ये इकबाल मस्जिद को खुदा का घर क्यों बोलता है? उसका घर तो सारी दुनिया है... ”
“अबे घपोड़शंख,” शांक अब पूरे मूड में था| “दुनिया भगवान का घर नहीं, उसकी वर्कशॉप है| और कभी-कभी उसकी मशीनरी गड़बड़ा भी जाती है| देखता नहीं, कैसे टेढ़े-मेढ़े भी पैदा होकर निकलते हैं कभी-कभी?”
“वाह वा... ! बहुत खूब!” रोष ने फिर खुल कर दाद दी| “ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था ...”
“अबे क्या वा-वाह कर रिया है फालतू में?” शांक अब और जोश में था| “इकबाल अल्लाह को जानता ठीक से, तो इतने शिकवे ही क्यों करता? उसकी इस बात का जवाब तो 70 साल पहले ही अहमद फराज़ दे गया| ये सुन:”
काफिर के दिल से आया हूँ, ये देख कर फराज़
खुदा मौजूद है वहाँ भी, काफिरों को खबर नहीं
“वा वा... क्या खूब फरमाया!” रोष तैश में आ कर नदी में खड़ा हो गया| “दूसरों को काफिर कहने वालों को ही काफ़िर कह दिया...”
“पानी में बैठ जा ताऊ,” शांक चिल्लाया| “लोग दिखने लगे हैं उधर| पिटवाएगा क्या? धुत तो हैं ही, नंगे देख लिया, तो लोग बहुत सुताई करेंगे|”
“लाजवाब,” रोष नीचे बैठ गया, पर उसका ध्यान अभी भी जनाब फराज़ की जवाबी शायरी में ही था| “इसका तो कोई जवाब नहीं हो सकता| अब कहाँ बैठ के पिएगा कोई भला आदमी ...”
“जवाब है, भैस की पूँछ,” शांक हंसा| “सालों बाद ही सही, पर जवाब दिया गया| जवाब दिया वसी साहब ने ...”
खुदा तो मौजूद है, दुनिया में हर जगह
तू जन्नत में जा, वहाँ पीना मना नहीं
“ये क्या जवाब हुआ,” रोष भन्नाया| “मर साले| कहीं चैन से पीने को नहीं है| लो जी, पीना ही गुनाह हो गया| अब पीने के लिए, पहले मरना पड़ेगा...”
“बेटा, पीना हो या जीना,” शांक मुस्कुराया, “जब तक खुद न मरो, जन्नत नसीब ही नहीं होती| और रो क्यों रहा है? मुसलमानों का तो जन्नत में भी बढ़िया इंतज़ाम है| खुदा के लेफ्ट साइड पे बिठा के हूरें खुद जाम पे जाम पिलाती हैं| बढ़िया दारू, एकदम मुफ्त, बेहिसाब...”
“जो पी के जीने में मज़ा है यार,” रोष को ऑफर रास नहीं आई| “वो मर के पीने में कहाँ? और जहाँ से आदम को हकाल दिया गया हो, वहाँ जाने की अपनी क्या औकात| अपुन को तो वैसे भी वहां नो एंट्री ही होगी|”
“अपना मुकाम तो भालकी का पैराडाइस होटल ही भला| हूरें न सही, जाम तो है, जन्नत तो है| उसका तो नाम भी पैराडाइस है|”
“उस टीन टपरी की अँधेरी झोंपड़ी को जन्नत कह रहा है चूतिये,” शांक ने हिकारत से कहा| “गन्दी, बदबूदार बेंचों पे बैठ के, गंदे गिलासों में पीना पड़ता है| पिछवाड़े से सड़ती सब्ज़ियों, उल्टी और पेशाब की बू आती है|”
“अगर उसका मालिक सलाद में फ्री प्याज और अंडा करी में अनलिमिटेड करी न देता, तो मैं कभी वहाँ बैठकर नहीं पीता| ऊपर से ओल्ड मोंक रम की एक बोटल 4-6 जनों को मिल के खरीदनी पड़ती है|”
“हूरें पक्की हों जन्नत में, तो पीने के लिए हम भी मर लेते हैं यार,” कहकर रोष फिर तैश में उठ खड़ा हुआ| शांक के तर्क का वह कायल हो चुका था| “ऐसे ऐसों की वहाँ रिज़र्वेशन के दावे देख के तो लगता है, हमें भी तत्काल में जगह मिल ही जायेगी| चल चलें, ट्रक के आगे|”
“अबे साले,” शांक खिलखिला के हँसा| “कहाँ वसी शाह की बातों में आके जन्नत की तैयारी कर ली? वसी की शायरी का जवाब तो पहले ही कोई शायर दे चुका है|”
“दे चुका है?” रोष ठिठक कर रुक गया| “इसका भी कोई जवाब हो सकता है क्या ...?”
“हर बात का जवाब है, बावड़ी मूँछ,” शांक ने उसका हाथ पकड़ कर उसे पानी में नीचे खींच लिया| “अर्ज़ किया है:”
पीता हूँ साकी, ग़म-ए-दुनिया भूल जाने के लिए
जन्नत में कहाँ ग़म है, वहाँ पीने में मज़ा नहीं
“अब ये मत कहियो, कि इसका भी जवाब है,” रोष सर पकड़ कर बैठ गया|
“है क्यों नहीं?” शांक ने इतरा कर कहा| “मीर का नाम सुना है| मीर कहता है...”
हम पीते हैं मज़े के लिए, बेवजह बदनाम गम है
बोतल पूरी पी के देख, दुनिया क्या जन्नत से कम है?
“बीयर और है यार?” रोष ने खुश होकर पूछा| “ये मीर तो अपने टाइप का बंदा लगता है...”
नोट: उर्दू में ये शेर यहाँ: Sharab Peene De Masjid Mein Beth Kar https://www.youtube.com/watch?v=-2CZpj6c800
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