Tombstone makerबोधकथा: ये भी रहेगा नहीं (Ye Bhi Rahega Nahi)

 

शाकिर ने फकीर को सिखा दिया कि इंसान के वक़्त का उसकी नेकी बदी से कोई लेना देना नहीं|

 

वक़्त का काम है बदलना|

पिछली कहानी: माँ-बाप का कर्ज़

ईशा की गाड़ी ठुक गयी| उसे खरोंच तो न आई थी, पर एक्सीडेंट ने उसे हिला दिया|

घर आई तो चेहरा लाल, बदन रह-रह कर काँप उठता, पलकों से आँसू छलकने को तैयार|

रोष ने धीरज से उसकी दास्तान सुनी, प्यार से गले लगाया, कार चेक की, और बीमा कंपनी को फोन किया|

“हमारे साथ ही ऐसा क्यों होता है?” उसने रोष से रुआंसा सवाल किया, “हमने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया!”

“एक दरवेश हज को निकला,” रोष ने करुणा से भर कर कहा, “चलते-चलते रात होने लगी, तो रास्ते में एक गाँव देखकर वहाँ चला आया|”

“पनाह माँगने, जिसके दरवाज़े को खटखटाया उसने, वो घर शाकिर नाम के एक आदमी का था|”

“शाकिर ने फकीर की खूब सेवा की। बढ़िया खाना खिलाया| अगले दिन विदा करते वक़्त भी रास्ते के लिए रोटी, अचार, खजूर, पानी बाँध दिया|”

फकीर ने जाते हुए उसके लिए दुआ की, “खुदा करे, तू दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की पाए|”

सुन कर शाकिर हँस पड़ा| बोला, “दरवेश! जो है, वो भी रहने वाला नहीं है|”

फकीर को अपने आशीर्वाद के इस अजीब जवाब पर हैरत तो हुई, पर वह बोला कुछ नहीं| अल्लाह का नाम लेता, अपनी राह पर आगे बढ़ गया|

कुछ साल बीत गए| हज से लौटता फ़कीर, फिर उसी रास्ते लौट रहा था| शाकीर का गाँव देख कर, उसे उससे फिर मिलने की तमन्ना हो आई| आकर उसने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी|

शाकिर अब वहाँ नहीं रहता था| घर के नए मालिक ने बताया कि शाकिर अब हमदाद के घर नौकर है| मुफलिस हो गया है, वहीं पड़ा रहता है|

फकीर शाकीर से मिला| ग़ुरबत थी, मगर उसकी फ़राग-दिली में कोई कमी न आई थी| उसने बड़े ख़ुलूस से फकीर का स्वागत किया| अपनी टूटी झोंपड़ी में, बड़े प्यार से अपनी फटी चटाई पर उसे बिठाया|

खाने में प्याज़ और हरी मिर्च के साथ शाकिर की सूखी रोटी भी फकीर को बड़ी लज़ीज़ लगी| घड़े का ठंडा पानी शरबत की तरह मालूम हुआ|

अगले दिन रास्ते के लिए उबले आलू और नमक, जब शाकीर ने फकीर के लिए बाँध दिए, तो फकीर की आँख में आँसू उतर आये|

आह निकली, “याखुदा, ये तूने अपने बन्दे के साथ क्या कर दिया?”

शाकिर फिर हँस पड़ा| बोला, “तू क्यों दुखी होता है, दरवेश? वो अपने बन्दों को जिस हाल में मर्ज़ी रखे| उसका शुकराना करके, उसकी रज़ा में बन्दे को खुश रहना चाहिए|”

“मगर तुम्हारे जैसे नेक इंसान के साथ ऐसा होना ठीक नहीं लगता,” फकीर ने जिरह की|

“किसी की नेकी बदी से वक़्त को क्या लेना देना?” शाकीर ने कहा| “वक़्त का काम है बदलना| ये वक़्त भी बीत जाएगा| ये भी रहने वाला नहीं|”

फकीर ने शाकीर को गले लगा लिया|

“समझी!” ईशा मुस्कुरा दी, “शुक्र कर! फ़िक्र न कर!”

रोष ने मुस्करा कर हामी भरी, और खामोश रहा|

“शकीर का क्या हुआ?” ईशा से रहा न गया| पूछ बैठी, “कहानी इतनी ही थी क्या?”

“उसके इस अंत से दुखी हो तुम भी,” रोष मुस्कुराया, “हैप्पी एन्डिंग चाहती हो? पर:”

जो तेरे फ़क़ीर होते हैं, कितने रौशन ज़मीर होते हैं
वो तेरा ऐतबार करते हैं, हश्र तक इंतज़ार करते हैं
रिंद उतने गुनाह नहीं करते, जितने परहेज़गार करते हैं
तेरी बंदगी करें न करें, तेरे बन्दों से प्यार करते हैं

“जो सच्ची बंदगी करता हो उसकी,” ईशा कह उठी, “उसे ऐसे हाल में छोड़ेगा तो नहीं वो! शाकिर फितरतन फ़कीर था| क्या हुआ उसका फिर?”

सावां ते सूहा रंग,” रोष ने उसांस भरी, “सबदे नसीब दा, खेले दुःख सुख आंख मिचोली| रंग है उसदा न्यारा, मेरा मुरशिद खेले होली|”

“काला और सफ़ेद रंग सबके नसीब में है, क्योंकि दुःख सुख सबके जीवन में आते जाते हैं| पर रंग न्यारे हैं हमारे उस गुरु (रब) के, जो हमसे होली खेल रहा है|”

“फकीर शाकीर को भूल नहीं पाया| कुछ साल बीते| फकीर फिर उधर से एक बार निकल रहा था, तो उसके पाँव खुद-ब-खुद हमदाद के घर की ओर हो लिए|”

हमदाद मर चुका था| लेकिन मरने से पहले बेऔलाद हमदाद, शाकीर को अपना सब कुछ दे गया था| फ़कीर को हैरत हुई शाकीर को देख कर|

बदन पर रेशमी लिबास थे| पावों में कीमती जूतियाँ| नौकर-चाकर, शानो-शौकत| पर न गरीबी में शिकन दिखी थी इस आदमी की पेशानी पर, न अमीरी में गुमान दिख रहा था|

शाकीर ने फकीर की फिर दरियादिली से तीमारदारी की| जाने लगा, तो फकीर खुशी से कह उठा, “अल्लाह का शुक्र है, वो ज़माना गुज़र गया| मैं देख कर खुश हूँ कि तुझ पर उसकी खूब रहमत बरस रही है|”

यह सुनकर शाकिर फिर हँस पड़ा|

“क्या?” फकीर मायूस हो गया| "क्या तेरी ये खुशनसीबी मुकम्मल नहीं? क्या ये दौलत असल में तेरी नहीं? क्या ये भी दो पल की मेहमान है?"

"हाँ, दरवेश!” शाकिर खिलखिला उठा| “या तो ये चली जायेगी, या इसे अपना मानने वाला चला जाएगा। हमेशा कुछ नहीं रहता|”

फकीर अपनी नादानी समझ गया| हाथ आसमान की ओर उठा कर उसने मौला का धन्यवाद किया, और अपनी राह चल दिया| दिन बीते, महीने बीते, साल बीत गए|

लौटते हुए, फिर एक दिन फकीर की रूह, उसके कदम शाकीर के दरवाज़े तक खींच लाई| शाकीर मर चुका था| हवेली की दहलीज़ में कबूतर गुटर-गूं कर रहे थे|

कह रहा था आसमां, कि ये समां कुछ भी नहीं
रो रही शबनम, कि नौरंगी जहाँ कुछ भी नहीं
जिनके महलों में हज़ारों, जलते थे फानूस तब
झाड़ उनकी कब्र पर था, और निशां कुछ भी नहीं

‘बड़े-बड़े अमीर-उमरावों को, बादशाहों को,’ फकीर ने सोचा, ‘जो कुछ मिला, वह मिट गया| वे खुद मिट गए, जग छुट गया| न मौज रहती है सदा, और न मुसीबत ही टिकती है हमेशा।‘

जो तेरे फ़क़ीर होते हैं, हर हाल में खुश रहते हैं
मिल गया माल, तो उस माल में खुश रहते हैं
हो गये बेहाल, तो उस हाल में खुश रहते हैं

फकीर ने नौकरों से शाकिर की कब्र का पता पूछा, ताकि वहाँ जाकर दुआ कर सके। कब्र के पास पहुँचा, तो देखा, लिखा था, “ये भी रहेगा नहीं|”

फकीर हँस पड़ा, और शाकीर की कब्र पर सजदा कर, उसकी आखिरी सीख के लिए उसे दुआ देता, अपने रास्ते पर बढ़ गया|

“हद हो गयी!” ईशा ने माथा पीट लिया| “माना कि अमीरी नहीं रहेगी, गरीबी नहीं रहेगी| बीमारी नहीं रहेगी, सेहत नहीं रहेगी| जवानी नहीं रहेगी, ज़िन्दगानी भी नहीं रहेगी| पर कब्र का पत्थर भी रहेगा नहीं, इसमें ऐसी कौनसी दिलचस्प बात हो गयी जिसे समझ कर दरवेश हँस पड़ा?”

“ये तो समझी कि तू फिकर न कर, फरियाद न कर| अब में जी, कल की चिंता में आज को बर्बाद न कर| जिसको पीछे छोड़ जाना है, उसी के पीछे लगे रहना अक्लमंदी नहीं| नौकरी पर लेट न हो जाऊं, इसके लिए गाड़ी तेज़ चलाना ठीक नहीं| पर कब्र की इबारत का इशारा इस तरफ तो था नहीं| फिर?”

“जो अभी है या नहीं है, बाद में भी होगा नहीं| कार टूट गयी, रोना क्या? जान जा सकती थी, गाड़ी क्या चीज़ है, नौकरी क्या चीज़ है| ‘सर-सर’ कह कर जिनके पीछे भागती फिरती हूँ, उनका भी सिर पैर बचेगा नहीं| पर फिर भी, मैं समझी नहीं कि कब्रिस्तान में इस सूफी फ़क़ीर को शाकिर से आखिर कौनसा नया सबक मिल गया|”

“ये (सबक) भी रहेगा नहीं,” कह कर रोष उठ खड़ा हुआ, और घूमने निकल गया|

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