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The Parable of the Cracked Potफूटा पात्र (foota paatr) भी उपयोगी हो सकता है|

 

हम सब फूटे घड़े हैं, फिर भी उपयोगी होने का प्रयास कर सकते हैं।

 

आदर्श पात्र न बन पाने पर भी हमारे होने का औचित्य है|

पिछली टेलटाउन कहानी: अभी तो मैं जवान हूँ

वह अपनी खाट से उठा और अपने दादा के पास जाकर लेट गया| देव ने सरक कर उसे जगह तो दे दी, पर बोले कुछ नहीं।

वह चुपचाप अपने दादा से जा सटा, और उनके बूढ़े शरीर की प्यार-भरी सुपरिचित गर्मी महसूस करने लगा।

"मैं खोटा सिक्का हूँ," वह धीरे-से फुसफुसाया| भावना का वेग उसके शरीर को झकझोरने लगा| आँसू उसके गालों पर फिसलते, उसके दादा की सूती कमीज़ में जज़्ब होने लगे|

प्यार सब मवाद निकाल देता है, देव ये जानते थे, और लड़के को एक ऐसा सबक भी तो सिखाना था, जो वह ज़िन्दगी भर न भूले|

रेचन कभी दर्द रहित नहीं होता| लेकिन जिंतनी जल्दी इलाज किया जा सके, उतनी ही जल्दी आदमी के ठीक होने की प्रक्रिया भी तो शुरू हो पाती है|

दारुण क्रंदन से कंपकंपाते लड़के का शरीर, दर्द के बह जाने पर जब अंततः शांत हो, इक्का-दुक्का सिसकियों के हिचकोले खाता रह गया, तो देव उसकी ओर मुड़े।

उनका गर्म करुणामय हाथ प्यार से उसके बाल सहलाने लगा|

"एक भिश्ती के पास दो बड़े पात्र थे," उन्होंने कहना शुरू किया, “जिसे उसने एक बांस के दो सिरों पर बाँध रखा था| इन दो पात्रों वाला बाँस अपने कंधे पर रखकर, वह पनिहारी रोज़ घर से दूर झरने से पानी भरने को निकलता|”

“उनमें से एक पात्र में एक छोटी-सी दरार थी। इसलिए हर दिन जब वह घर पहुँचता, तो एक पात्र को केवल आधा ही भरा पाता| दूसरा पात्र बिल्कुल दोषहीन था| इसलिए वह सदा पूरा ही भरा मिलता|”

"बहुत लंबे समय तक, ऐसा हर रोज़ चलता रहा| पानी-वाहक केवल डेढ़ बर्तन पानी अपने घर पहुँचा पाता।"

"निष्कलंक पात्र को अपनी काबलियत, अपने कौशल पर, बहुत नाज़ था| उसे जिस काम के लिए बनाया गया था, वह उस काम को बखूबी अंजाम दे रहा था|”

“लेकिन बेचारा फूटा पात्र, अपनी खामियों पर शर्मिंदा था| दुखी, कि जिस काम के लिए उसे बनाया गया था, उसे वह केवल आधा-अधूरा ही कर पाता था|”

“वर्षों की ग्लानि और अपराध-बोध से दबे पात्र ने, एक दिन आखिरकार पनिहार के सामने अपनी कमज़ोरियाँ और कड़वी विफलताएँ कुबूल करने की हिम्मत जुटा ही ली|”

“मैं ख़ुद पर शर्मिंदा हूँ, उसने कहा, और आपसे माफ़ी माँगना चाहता हूँ| मैं आज तक सिर्फ आधा ही पानी घर तक पहुँचा पाया हूँ, क्योंकि घर पहुँचने तक मेरी एक दरार में से पानी लगातार रिसता रहता है|”

“तुमने कभी ध्यान दिया है?" भिश्ती ने उससे पूछा, "कि झरने से घर तक के रास्ते में केवल तुम्हारी तरफ ही फूल उगे हैं, उत्तम पात्र वाली तरफ नहीं!"

"मैं हमेशा-से तुम्हारे दोष के बारे में जानता था| इसीलिए मैंने तुम्हारे पथ में फूलों के बीज बो डाले| हर रोज़ झरने से लेकर मेरे घर पहुँचने तक, तुमने मेरे लिए उनकी सिंचाई की है|”

“वर्षों तक, मैंने इन खूबसूरत फूलों से अपने घर को सजाया है| अगर तुम वैसे न होते जैसे तुम हो, तो इनकी खूबसूरती मेरे घर को दमका नहीं पाती|”

“कहानी की सीख ये है कि हम सब में अपने-अपने दोष हैं| निष्कलंक कोई भी नहीं| हम में से हरेक में अद्वितीय त्रुटियाँ हैं| हम सभी फूटे घड़े हैं, लेकिन फिर भी अपने-अपने तरीके से उपयोगी हो सकते हैं।"

“खामियों के बावजूद पायी सफलता जीवन को परिपूर्ण करती है| इसी से हमारे भीतर छुपी गरिमा अनावृत्त होती है| हमारी महानतम महिमा हमारे कभी न गिरने में नहीं, बल्कि गिर-गिर कर हर बार खड़े हो जाने में है|”

“यह दरारें, दोष, त्रुटियाँ – जो हम सब में हैं, ये ही तो हमारी ज़िन्दगी को दिलचस्प बनाती हैं, उसे पुरस्कृत करती हैं। ज़रूरत इस बात की है कि जो जैसा है, उसे वैसा ही हम स्वीकार करके, उसे भीतर की अच्छाई को खोजें|”

"ताकत कमज़ोरी में छिपी है," रोष समझने की कोशिश कर रहा था, "या आप सिर्फ एक हारे हुए को इसलिए आशा दे रहे हो, ताकि वो खुद के बारे में कुछ अच्छा महसूस कर सके?”

"नहीं," देव बोले, "एक अच्छा निर्माता हर प्रकार की सामग्री को काम में लाता है। लकड़ी और धातु की अलग अलग शक्तियाँ और कमज़ोरियाँ हैं| मिट्टी और सीमेंट अलग हैं। फिर भी, घर बनाने में सबकी आवश्यकता है।"

"हर चीज़ किसी न किसी उद्देश्य को पूरा करती है| यहाँ तक कि हमारे कमजोरियाँ और खामियाँ भी। जो काम एक कर सकता है, वो दूसरा नहीं कर सकता| इसलिए अच्छे कारीगर अपने औजारों को दोष नहीं देते| जो कुछ भी उनके पास है, वे सिर्फ उसका अच्छे से अच्छा उपयोग करना सीखते हैं|”

‘वाकई,’ रोष ने कथा पर विचार करते हुए सोचा, ‘पानी-वाहक में करुणा न होती, बर्तन की कमज़ोरी को उसने देखा न होता, या देखकर भी उसका कोई अच्छा उपयोग करने की युक्ति न लगाई होती, तो उसे फूल कभी नहीं मिल सकते थे|’

‘लेकिन यदि उस में, पथ में फूल के बीज बोने की दूरदर्शिता और बुद्धिमता न होती, तो भी फूटे पात्र ने कुछ न कुछ तो सींचा ही होता! क्या? झाड़-झंखाड़ शायद?’

‘उससे भी तो कीट-पतंगों और हमारे शाकाहारी पशु-मित्रों का ही भला हुआ होता| तो कमजोरी भी, वास्तव में शक्ति बन सकती है| कैसी कृपा है उसकी, हम जैसे बेवकूफों पर भी| पर मैं सीखूँ कैसे, चीज़ों को इस तरह देखना?’

इस बात से अनजान कि उसके पास लेटे उसके दादा, गहरी नींद में अब खर्राटे ले रहे थे, रोष खुद से पूछ रहा था, ‘अच्छा क्या होता? कि मैं एक आदर्श बर्तन होता, या कि एक टूटी मटकी, जो फूटने पर भी उपयोगी बनने का प्रयास करती रहती है?'

'दोनों में से कोई भी नहीं!' उसने अंततः फैसला कर लिया, ‘बर्तन तो जैसे हैं, वैसे हैं| होने के मामले में तो उनके पास कोई विकल्प नहीं। मैं जैसा हूँ, वैसा हूँ - त्रुटिहीन या त्रुटिपूर्ण – अपने होने के मामले में मेरे पास भी कोई विकल्प नहीं।'

'लेकिन मैं क्या बनना चाहता हूँ, ये मैं अपने लिए चुन सकता हूँ| मैं भिश्ती बनना चाहता हूँ, उस पानी-वाहक जैसा, जो यह जानता था कि कैसे एक टूटे पात्र को भी एक पूर्ण, उपयोगी जीवन बिताने के काबिल बनाया जा सकता है|'

‘एक दयालु, सहिष्णु व्यक्ति| होशियार! जो कुछ बर्बाद नहीं होने दे| न अपनी प्रतिभा, न अपनी कमज़ोरी| और न पानी की एक भी बूँद!’

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