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Child paintingबच्चों के लालन-पालन के प्रश्नों में उलझी एक आध्यात्मिक कहानी

 

“जीवन-दीक्षा (Jivan Diksha) के आगे मेरी दीक्षा तुच्छ है, तेरी कृतियों पर मेरे हस्ताक्षर छोड़ देगी,” ये कह चित्रकार पिता ने अपने ही पुत्र को दीक्षा नहीं दी|

 

माँ-बाप न सिखाएँ, दिशा ने दें, तो बच्चे क्या सीख पाएँगे?

पिछली टेलटाउन कहानी: (अभी अप्रकाशित)

“सर,” सुमन ने कहा, “कुछ सुना दो|”

“क्या सुनाऊँ?” रोष ने पूछा|

वह फर्स्ट ईयर के, बिहार से आये, कुछ जूनियर्स के साथ इंजीनियरिंग कॉलेज के बाहर, घास पर बैठा था| जबसे उसने इनको रैगिंग से बचाया था, तबसे ये लड़के उससे बहुत घुल-मिल गए थे|

“कुछ भी सुना दो,” सुमन ने ज़िद की|

“कहानी सुनोगे?” रोष ने हंस कर पूछा|

सब लड़के आनन-फानन में उसके पास सिमट आये| उनकी ये उत्सुकता देखकर रोष हंस पड़ा| आत्मीयता से भर उठा उसका मन, अनायास ही गले को अवरुद्ध करने लगा|

शाम ढल रही थी| एक अदृश्य चित्रकार आकाश के कैनवास पर हर पल, नए चित्र गढ़ रहा था| एक विचार शब्द बनकर होठों तक आ पहुँचा| उसे कह डालने को उसका भी मन हो आया|

“लिखा हुआ तो कुछ भी है नहीं मेरे पास,” उसने कहा, “पर एक कहानी इस रंग-भरी संध्या को देख कर मन में उभर रही है| उसी को शब्दों में बाँधने की कोशिश करता हूँ|”

लड़के तन्मयता से उसे सुन रहे थे| उसने घास का एक तिनका तोड़ा, दाँतों तले दबाया, और कहना शुरू किया:

बालक बहुधा खेलते-खेलते जब अपने पिता के कमरे में आ जाता, तो उसे पिता को चित्र बनाते देखकर बहुत विस्मय होता| बहुत देर तक, खेल भूल कर, वह चित्रों को टकटकी बाँधे देखता रहता|

उसे आश्चर्य होता कि विभिन्न लकीरें, कैसे धीरे-धीरे आकृति में बदल जातीं| बालक का कुतूहल देखकर एक दिन चित्रकार ने उसके भीतर के रचयिता को निमंत्रण दे दिया|

वह मौन, आश्चर्य-चकित सा बैठा, पिता की नवीनतम कलाकृति को निहार रहा था, जब चित्रकार ने उठकर उसके नन्हे हाथों में तूलिका, रंग, घोलपात्र और एक कोरा पृष्ठ थमा दिए|

बालक ने दृष्टि उठा कर पिता को देखा| दृष्टि में प्रश्न निहित था|

चित्रकार मुस्कराया| बोला, “सृजन कर|”

बालक की आँखों में विश्वास और आशा ने हर्ष के नन्हे-नन्हे दीप जला दिए| उल्लास से रोमांचित हो उठा वह|

चित्रकार मुस्कराया| बोला, “आरम्भ कर|”

बालक ने उत्सुकता से उन वस्तुओं को देखा| किन्तु अनायास ही वह गंभीर हो गया| मौन, दोनों हाथों में पितृ-प्रसाद भींचे, उसकी मौन दृष्टि ने पुनः पिता से प्रश्न किया|

चित्रकार मुस्कराया| बोला, “स्वयं कर|”

बालक के अधर चलायमान हुए| स्वर झंकृत हुआ, “दीक्षा?”

पिता ने गंभीरता से कहा, “मेरी नहीं, जीवन की दीक्षा| जीवन-दीक्षा के आगे मेरी दीक्षा तुच्छ है| तेरी कृतियों पर मेरे हस्ताक्षर छोड़ देगी|”

बालक नतमस्तक हुआ, सृजन-सामग्री को माथे से लगाया, किन्तु वहीं खड़ा रहा|

चित्रकार उसका असमंजस समझ गया| उसने ऊँगली क्षितिज की ओर उठाई, और कहा, “अध्ययन कर|”

बालक सब कुछ अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियों में सहेजे, लौट गया| दिन बीते| सप्ताह बीते, माह बीते| एक दिन पिता ने देखा, पुत्र रंग घोलने की चेष्टा कर रहा है| चित्रकार मूक दर्शक बन देखने लगा|

बालक उत्तेजित था| प्रथम प्रयास था| किंचित असावधानी से रंग सर्वत्र फैल गया| बालक हतप्रभ रह गया| मुख उठाकर जब उसने पिता को उसे ही निहारते पाया, तो नेत्रों से अश्रु असहाय ढुलक चले|

चित्रकार बोला, “मनन कर|” और एक नया पृष्ठ उसे दे, लौट गया|

कुछ समय पश्चात, बालक ने पुनः चेष्टा की| उसकी कूची कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं को पृष्ठ पर जन्म दे गयी| बालक कुतूहल और उत्साह से, पृष्ठ पिता के पास लेकर आया|

चित्रकार ने कृति को देखा| निर्विकार भाव से उसे बालक को लौटा दिया, और कहा, “निर्णय कर|”

बालक ने अपने चित्र को बहुत देर तक देखा, तब फैंक दिया| याचक नेत्र मूक अभिलाषित प्रश्न कर बैठे| पिता ने करुणा से भर कर, एक नवीन पृष्ठ संभावी चित्रकार को दे दिया|

बालक पुनः लौटा| नवीन पृष्ठ को सावधानी से रखा| बहुत सोचने-विचारने के बाद, एक दिन फिर उसने अपनी कूची को स्वतंत्र कर दिया| एक भिन्न आकृति पृष्ठ पर उभर आई|

गर्व और अनुराग से बालक ने अपने चित्र को देखा| संतुष्ट हो, पृष्ठ ले, वह पिता के पास पहुँचा| चित्रकार ने नवीन कृति को देखा| उसे बालक को लौटाते हुए, उसने कहा, “पुनः कर|”

बालक को अचरच हुआ, किन्तु वह फिर परीक्षक बन गया| चित्र को विभिन्न कोणों से परखने, जांचने लगा| अंततः उसने धीरे से चित्र को वहीं गिरा दिया| मौन नेत्र याचना में झुक गए|

पिता मुस्कराया| नन्हे चित्रकार को उसने, फिर एक नवीन पृष्ठ दे दिया|

दिन बीते| ऋतुएं बीतीं| वर्ष बीते| चित्रकार वृद्ध हो गया| पुत्र श्रेष्ठ चितेरा बना| प्रकृति ने नवीन चित्रकार को पुत्रोपहार दिया|

वृद्ध देख-देख कर विस्मित होता, कि पौत्र वही ठिठोली, वही कलरव करता, जो पुत्र करता था| समय उसके पौत्र का हाथ पकड़ कर, उसे बालपन से यौवन तक ले आया|

एक दिन, नित्यप्रति की भांति, पौत्र अकेला बैठा प्रकृति को निहार रहा था|

‘शिक्षारम्भ का समय हुआ,’ वृद्ध ने सोचा|

कुर्सी के हत्थे का सहारा लेकर वह उठ खड़ा हुआ, और लाठी टेकता, पौत्र के समीप आ पहुँचा| पौत्र गगन से कुछ कह रहा था|

“हे जीवन| यदि मैं तेरे पृष्ठ सर्वोत्कृष्ट न भी रंग पाऊँ, तो भी मुझे पुनः प्रयत्न हेतु, नवीन पृष्ठ देने की कृपा करना|”

वृद्ध के चेहरे पर अनायास ही मुस्कान थिरक उठी| प्रेरणा चिन्ह ही तो है| आदिगुरू जीवन ने उसके पौत्र को शिष्य स्वीकार कर लिया था|

संतोष की साँस भरता, वह लौट कर पुनः कुर्सी में धंस गया| शिक्षारम्भ हो गया था| आज प्रथम पाठ था|


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