32x32taletown facebook inv 32x32taletown twitter inv 32x32taletown googleplus inv 32x32taletown youtube inv 32x32taletown flickr inv


Old woman in Barkhor Marketहमन की दुनिया से क्या यारी (duniya se kya yari), कबीर सिखाते हैं, हमन हैं इश्क मस्ताना|

 

बेड़ा पार तो इश्क ही करायेगा, पर राह नाज़ुक है ज़िन्दगी की|

 

तो कैसे चलें?

पिछली कहानी: पढ़ें इस कथा से पहले की कहानी: परिचय (अभी अप्रकाशित)

“यहाँ एक की जगह और है अभी?” एक नया लड़का रूम में झाँक कर उनसे पूछ रहा था|

“हाँ, है| क्यों?” मुकेश ने पूछा|

“यहाँ कैसे लड़के रह रहे हैं?” उसने उत्तर देने की जगह, फिर पूछा|

“हमारे जैसे,” मुकेश ने जवाब दिया| बड़ा ही अजीबो-गरीब सवाल था ये|

“तुझे क्या लेना है बे?” इन्दर बिस्तर पर लेटे-लेते उसपर गुर्राया, “अपना रास्ता नाप|”

“दरअसल, मैं अपना रूम बदलना चाहता हूँ,” नए लड़के ने भड़कते इन्दर को समझाया, “जहाँ मेरे माफ़िक लड़के रह रहे हों, वहीँ बसना ठीक रहेगा न| इसलिए पूछ रहा हूँ|”

“अभी तू जिस कमरे में रह रहा है,” रोष ने उससे पूछा, “वहाँ कैसे लड़के रह रहे हैं?”

“पूछ मत यार!” लड़का बोला, “एक से एक दुष्ट और बुरे लड़के आके बस गए हैं वहाँ तो|”

“हम भी बिलकुल वैसे ही हैं,” रोष ने समझाया, “कपटी, दुष्ट, बुरे … यहाँ आके तू सुखी नहीं रहने वाला|”

“सच में?” लड़के ने हैरत से रोष से पूछा, “मज़ाक कर रहे हो? कोई कभी ख़ुद को भी कपटी कहता है क्या? लेना नहीं चाहते क्या?”

“तू देना चाह रहा है, भूतनी के,” इन्दर गुर्राया, “तो हम क्यों लेने से मना करेंगे?”

लड़के ने दयनीयता से रोष और मुकेश की ओर देखा| उसे इन्दर से ऐसी बेरुख़ी की उम्मीद नहीं थी|

“सच कह रहे हैं यार,” रोष ने उसे समझाया, “मुझे तो नक़ल करने के चक्कर में स्कूल से निकाल दिया गया था| निकम्मा था, मेरिट पे सिलेक्शन हुआ नहीं, इसलिए यहाँ धक्के खाता चला आया|”

“इन्दर को तू देख ही रहा है| कमरे में कैसा सब पे रौब झाड़ता फिरता है, बदतमीज़ी से पेश आता है| ऊपर से साला पियक्कड़ है| रोज़ बोतल चढ़ाता है|”
“किसी को झनक-झनक झनकाने का शौक़ होता है| इसे छलक-छलक छलकाने का है| तू शरीफ आदमी लगता है| तुझे तो ढक्कन सूँघ के ही चढ़ जायेगी| समझ गया, कि और पोल खोलूँ सबकी?”

लड़का सर हिलाता आगे बढ़ गया|

“क्या कह रहा था बे?” इन्दर ने अपने चरित्र-हनन पर आपत्ति की, “क्या अनाप-शनाप बक रहा है मेरे बारे में| दो घूँट पी क्या लेता हूँ कभी-कभार, तू तो मेरी इज्ज़त ही उतारने लग गया|”

“डरता क्यों है यार,” रोष ने हंस कर कहा, “अपने पैसे की पीता है| माँग के तो नहीं पीता न| रब से पर्दा है नहीं कोई| बन्दों से पर्दा करना क्या|”

“दुनिया की परवाह छोड़| दुनिया हमारी यार नहीं| दुनिया से हमारी भी क्या यारी?”

“हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या?

खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकते हैं,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या?

न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़ें पियारे से,
उन्हीं से नेह लागा है, हमन को बेकरारी क्या?

कबीरा, इश्क काम आता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?

“क्या मतलब?” मुकेश ने पूछा, “तेरी हिंदी तो ऊपर से निकल गयी साली| ये ग़ज़ल भी पहले कभी नहीं सुनीं| किसकी है?”

कबीर की,” रोष ने कहा, “हिंदी के शायद वो ही पहले गज़लकार रहे हों| और सुनोगे कब? तुम तो मन्दाकिनी को घूर घूर के राम की गंगा मैली करने में लगे हो?”

“मतलब ये है दोस्त, कि जब खुदा का नूर ख़ुद प्यार बनके तुममें बसता है, तो चालाकियों की ज़रूरत क्या है? दुनिया में रहो, या कहीं जंगल-पहाड़ पर अकेले जाकर बस जाओ, दुनिया से क्या यारी है तुम्हारी?”

“ज़िन्दगी ट्रेन का डिब्बा है| कोई मुसाफ़िर साथ बैठा हो, या डिब्बा खाली हो, ट्रेन तो चलेगी| चल रही है| मुसाफिरों से दुआ-सलाम हो सकती है, पर यारी कैसी?”

“उनका मुकाम आएगा, वो उतर जायेंगे| तुम्हारा मुकाम आएगा, तुम उतर जाओगे| किसी ने किसी के साथ, न रहना है, न जाना| तो यारी कैसी?”

“बहुत अच्छे,” मुकेश कह उठा, “और बाकी लाइनों का मतलब?”

“जो उससे दूर हैं, बिछुड़े हैं, उसे याद नहीं करते, वो ज़िन्दगी में ठोकर खाते फिरते हैं| भटकते हैं| उनकी मंजिल कहाँ है, क्या है, इसका उनको कुछ नहीं पता|”

“हमारा यार खुद हम में है| ईश्वर हम में है, जैसे खुशबु फूल में बसी होती है| हमें किसका इंतज़ार है, किसकी खोज है? हम तो खुद ही पहुँचे हुए हैं, हमें कहाँ जाना है|”

“मृग जिस कस्तूरी को बाहर खोजता फिरता है, वो तो उसी के अन्दर बसती है| कबीर ने ही कहा है कहीं: तेरा साईं तुज्झ में, ज्यूं पुहुपन में बास। कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर-फिर सूंघे घास।“

“चार दिन की ज़िन्दगी| चार आदमी क्या कहेंगे, ये सोच सोच कर आदमी इसे काटता रहता है| वो चार आदमी हैं कहाँ? उन्हें खोजते-खोजते ज़िन्दगी की शाम हो गयी| कबीरे को तो मिले नहीं वो|”

“किसे फ़िक्र है तुम्हारी? सब अपने में मस्त हैं| किसे पड़ी है तुम्हारी? सबको अपनी पड़ी है| इस झूठे मान के चक्कर में लोग कितने पापड़ बेलते हैं, कितनी तिकड़में लड़ाते हैं|”

“मगर नाम, सिर्फ उसका सच्चा है| सच्चाई तो ये है, कि दुनिया की कोई बात सच्ची नहीं| जो कुछ आज देती है, कल छीन लेती है|”

“आज जिस फूल को शुद्ध कह कर भगवान् पर चढ़ाती है, कल उसी को कचरा कह कर कूड़े में बहाती है| उसे तुम्हारी क्या कद्र है?”

“तड़पना है तो इस बात के लिए तड़पो, कि वो हमसे एक पल के लिए भी जुदा न हो| और हम उसे एक पल के लिए भी न भूलें| जब उसी से मुहब्बत है हमारी, तो किसी और की फ़िक्र क्या करनी?”

“ऐसा इश्क ही काम आता है| इसे अपने अन्दर पैदा करना है मुकेश, तो कबीरा कहता है - द्वैत को मिटा डाल| दूरियों को दूर कर दे दिल से| तू उससे अलग नहीं, वो तुझसे अलग नहीं|”

“कई बार हमारे यार जुलाहे ने, इसी बात को अलग-अलग जगह, अलग अलग तरीके से कहा है| जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग I तेरा साईं तुज्झ में, तू जाग सके तो जागI”

“जब सफ़र पे चल ही पड़े हैं अपनी गठरी लेके, तो मुसीबतों के गिले क्या करने? राह संकरी है, मुश्किल है, कठिन है| बोझ भारी है| इस सब से क्या हासिल| या तो चलो नहीं| चल दिए तो डरो नहीं ...”


अगली कहानी: मिल गए बोतल वाले

80x15CCBYNC4 टेलटाउन कहानियाँ Creative Commons License सिवाय जहाँ अन्यथा नोट हो, हमारी सब कहानियाँ क्रिएटिव कॉमन्स एट्रीब्युशन नॉन-कमर्शियल 4.0 इंटरनेशनल लाइसेंस के तहत प्रस्तुत हैं। इस लाइसेंस के दायरे से परे अनुमतियों के लिए हमसे सीधे संपर्क करें|