पेरेंटिंग कहानी: हाथी की बेड़ी (Hathi Ki Bedi)
क्या बड़ों को प्रणाम करने से घर के क्लेश मिट सकते हैं?
कौरव कुलवधुएँ बड़ों का सम्मान करतीं, तो क्या महाभारत रूकती?
पिछली टेलटाउन कहानी: नेक सामरी
आनंद कथा सुना रहे थे, “महाभारत का युद्ध चल रहा था| एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर भीष्म पितामह ने घोषणा कर दी, कि कल मैं पांडवों का वध कर दूँगा|”
“बात पांडवों के कानों तक पहुँची| सुनकर उनके शिविर में बेचैनी बढ़ गई| भीष्म की क्षमता के बारे में सभी को पता था| इसीलिए सभी बहुत परेशान हो गए|”
“तब श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर, सीधे भीष्म पितामह के शिविर में गए| शिविर के बाहर पहुँच कर, उन्होंने द्रोपदी से कहा, कि जाओ, अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम कर आओ|”
“ऐसी अँधेरी रात में, संकट की ऐसी घड़ी में, अनिष्ट करने की प्रतिज्ञा लेने वाले के पास ही, कुलवधू को प्रणाम करने जाने कहना, कुछ अजीब-सा लगा द्रौपदी को| पर कृष्ण की बात टाले कैसे?”
“अन्दर जाकर उसने पितामह भीष्म को प्रणाम किया| उन्होंने उसे ‘अखंड सौभाग्यवती’ होने का आशीर्वाद दे दिया|”
“विधवा होने पर सौभाग्य अखंड कैसे रहेगा, तात?” द्रौपदी दुखी मन से पूछ बैठी|
भीष्म सकते में आ गए|
“इतनी रात, अकेली कैसे आना हुआ?” उन्होंने उससे पूछा|
“अकेली नहीं आई,” द्रौपदी ने जवाब दिया| “श्रीकृष्ण के साथ आई हूँ| वे कक्ष के बाहर खड़े हैं| उन्होंने ही मुझे इतनी रात, आपको जगाकर, प्रणाम कहने भेजा है|"
भीष्म की पेशानी पर बल पड़े| फिर मिट गए| वे सब समझ गए कि कौन उन्हें इतनी रात जगाने आया है, और क्यों| केशव की चतुरता पर वे बरबस मुस्कुरा उठे|
बोले, “अच्छा, अच्छा| अब रात बहुत हो गयी| अपने शिविर लौट जाओ| और कृष्ण से कहना, कि मेरे वचन को मेरे ही वचन से कटवाने का काम, सिर्फ वो ही कर सकते थे|”
वापस लौटते हुए, द्रौपदी से भीष्म का सन्देश सुनकर, कृष्ण मुसकुरा भर दिए| पर उनकी मुस्कराहट देखकर पाँचाली निर्भय हो गयी| घर लौट कर चैन से सोई| उसके एक बार जाकर पितामह को प्रणाम कर आने से, पाँचों को जीवनदान जो मिल गया था|
"अगर द्रौपदी प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि को प्रणाम करती होतीं,” आनंद ने सबक आगे बढ़ाया, “और दुर्योधन दुःशासन आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होंती, तो शायद युद्ध की नौबत ही न आती|"
“आज हमारे घरों में जो इतनी समस्याएं हैं, उनका भी मूल कारण यही है, कि जाने अनजाने अक्सर घर के बड़ों की उपेक्षा हो जाती है| यदि घर के बच्चे और बहुएँ प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लें तो, तो शायद किसी भी घर में कभी कोई क्लेश न हो|"
“बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं| उनको कोई अस्त्र-शस्त्र भेद नहीं सकता| सभी इस संस्कृति का नियमबद्ध पालन करें, तो घर स्वर्ग बन जाए।"
“क्योंकि प्रणाम प्रेम है। अनुशासन है। शीतलता है। प्रणाम आदर सिखाता है। झुकना सिखाता है। क्रोध मिटाता है, अहंकार मिटाता है। आँसू धो देता है। इस से सुविचार आते है। प्रणाम हमारी संस्कृति है।“
कथा ख़त्म होने के बाद, आरती हुई, भजन हुआ, कार्यक्रम समाप्ति पर आया| लोग चाय पीकर, प्रसाद खाकर कर निकलने लगे, तो आनंद व्यास गादी से उतर कर रोष और ईशा के पास आ बैठे|
“कथा कैसी लगी?” उन्होंने रोष से पूछा|
रोष ने उसांस भरी, पर कहा कुछ नहीं|
“इतनी बुरी?” आनंद हँस पड़े| “खुल के कहो, रोष भाई| तुम तो जानते हो, मैं तुम्हारी बात का कभी बुरा नहीं मानता|”
“आपकी भावना अच्छी थी, कथा भी अच्छी, पर शिक्षा गलत हो गयी,” रोष कह उठा| “महाराज भरत ने अपना राज्य तक अपने अयोग्य वंशजों को नहीं दिया| सुयोग्य को ही सम्मान, संपत्ति, सत्ता और शक्ति देने की परंपरा शुरू की|”
“पर आगे उनके वंशज शान्तनु के राज्य में, भीष्म ने पिता-प्रेम में इसे विस्थापित करके, भाई-भतीजावाद फिर से स्थापित कर दिया| और विश्व की सबसे पुरातन संस्कृति सतत सुद्रढ़, उज्जवल और गौरवान्वित होने के बजाय क्षीण, कलुषित और कलंकित होती गयी|”
“कृष्ण द्रौपदी को भीष्म के पास प्रणाम करवाने लेकर गए हों, या न गए हों; भीष्म ने ऐसा युद्ध-नीति विरुद्ध आशीर्वाद द्रौपदी को दिया हो, या न दिया हो; बड़ों को नियमित रूप से प्रणाम करने की महत्ता लोग समझें, या न समझें; पर ऐसी कहानी का ऐसा महात्म्य बताकर, जाने-अनजाने आपने न सिर्फ भीष्म की सूझ-बूझ और दूरदर्शिता का अपमान कर दिया, बल्कि अयोग्य को मान और सत्ता देना सिखाकर बहुत गलत भी कर दिया|”
“ये जो प्रणाम का महत्व आपने बताया गया है, वह इस कहानी के प्रणाम की शिक्षा से मेल नहीं खाता| ये प्रणाम जो भीष्म को करवाने, कृष्ण द्रौपदी को ले गए, ये युद्धनीति थी, निष्काम प्रणाम नहीं| ये प्रणाम भटके हुए को राह दिखाना था, न कि बड़ों के सम्मान का शिष्टाचार|”
“जो प्रणाम अहंकार मिटाता है, वो प्रणाम निष्काम है, सकाम नहीं| सकाम प्रणाम आपको लाभ पहुँचा सकता है, परिवर्तित नहीं कर सकता| आपको उठाना, आपको बदलना, ये तो सिर्फ निष्काम प्रणाम के ही बस में है|”
“मतलब के लिए ही सलाम करना है, तो भी योग्य को ही सलामी देनी चाहिए, अयोग्य को नहीं| हमारी संस्कृति में बड़ों का नमन सिखाया जाता है, योग्य का नमन सिखाया जाना चाहिए| अगर गुरु भी अयोग्य हो, तो उसके पैरों में लेट कर भी हम बहुत अधर्म ही शुरू करते हैं|”
“महाभारत के समय में भी अगर दुर्योधन- दुःशासन आदि की पत्नियां पांडवों को प्रणाम नहीं करती थीं, तो इससे इतना तो ज़ाहिर होता ही है, कि वो अपने ज़माने के मर्दों जितनी मक्कार नहीं थीं|”
“वर्तमान हो या अतीत, हमारे घरों में जो इतनी समस्याएँ हैं, उनका मूल कारण बड़ों की उपेक्षा नहीं, व्यक्तिगत स्वार्थ और कामनाएँ रही हैं| खुदा छोटे हों या बड़े, पुजना सभी चाहते हैं| वरना हथियार क्यों रखते? देखा वली न कोई भी, हथियार के बगैर| फिर कृष्ण गोवर्धन पुजवा दें, तो प्रलय तो मचेगी ही|”
“इज्ज़त स्वेच्छा से की जाए, दी जाए, तो फलती है| जो इज्ज़त करवाई जाती है, साम दाम दंड भेद से पैदा की जाती है, वह आडम्बर है| टिक नहीं पाएगी| उसे पाकर भी क्या करेंगे|”
“रही बात कवच की, तो अगर मान भी लें, कि बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं, और उनको कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं भेद सकता - तो होगा क्या? सब कमीने दुर्योधन की तरह, माँ बाप के आशीर्वाद से, अतुल सैन्य-संपत्ति के स्वामी और वज्र शरीर होकर अजेय हो जायेंगे|”
“फिर कृष्ण को धर्म संस्थापना के लिए खुद अवतरित होकर, महाभारत करानी पड़ेगी| माँ के पास कवच लेने जाने से पहले, मक्कारी से नग्न दुर्योधन को लंगोट पहनवाना पड़ेगा| धर्म की संस्थापना के लिए किये जा रहे युद्ध में, अधर्म से उसकी जांघें तुड़वानी पड़ेंगी|”
“बड़ों के दिए सच्चे आशीर्वाद मनोबल बढ़ा सकते हैं, कवच की तरह काम भी कर सकते हैं| पर उस कवच के अन्दर छुपा व्यक्ति अगर अयोग्य है, तो ऐसे आशीर्वाद बिना सोचे-समझे उसे देने वाला अनीति ही करता है|”
“प्रणाम के बदले अयोग्य को शक्ति के आशीर्वाद मत दो! शायद इसीलिए इतनी कहानियाँ हैं भोले के वरदानों की, जिन्हें सुलटाने विष्णु को राम और कृष्ण बन-बन कर आना पड़ता है|”
“झूठे मतलबी प्रणाम का कोई मतलब नहीं| खोखले आशीर्वाद से कुछ नहीं होता| सफलता हक़दार के कदम चूमती है| यही बात सम्मान के लिए भी सच है| शोहरत क़ाबलियत की परछाई है, उसके साथ-साथ चलती है|”
“न झूठी सलामी किसी को ठोकें, न बच्चों को सिखाएँ कि गंगा नहाने से सब पाप धुल जाते हैं| पाप धुलें, या न धुलें; गंगा मैली ज़रूर हो जायेगी|”
“अगर तुम वाकई ऐसा सोचते हो,” आनंद ने पूछा, “तो अपने बच्चों को बड़ों के पाँव छूना क्यों सिखाते हो?”
“हिन्दुस्तानी बाप हूँ,” रोष ने मुस्कुरा कर कहा| “बच्चों को जो अच्छा समझता हूँ, सिखाने से बाज़ नहीं आता| नमन में साफगोई पसंद है, पर ज़रूरत बच्चों में नमस्ते का संस्कार डालने की भी है| बड़ों को नमस्ते करने की आदत नहीं डालूँगा अभी से, तो बड़ों को नमस्ते नहीं करने की आदत पक जायेगी|”
“हाथी के बच्चे को बचपन से ही पाँव में रस्सी बाँध कर, खूँटे से बाँधना शुरू कर देते हैं, आनंद भाई| हाथी बड़ा हो जाता है, तो न खूँटे की कोई औकात, न रस्सी की बिसात, कि हाथी को बाँध कर रख सके| लेकिन तब तक हाथी को बंधे रहने की आदत हो लेती है|”
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