गीत को उठने दो (Geet Ko Uthne Do), साज़ को छिड़ जाने दो|
ओशो के गीत वाकई सम्भोग से समाधि तक पहुँचाते है|
एक काव्यात्मक बोधकथा, जो एक काव्यात्मक प्रेमकथा बन गयी
पिछली कहानी: पढ़ें इस किस्से से पहले की कथा: (अभी अप्रकाशित)
“आज फिर बहुत पी ली, रोष!” ईशा ने शिकायत की|
“फोकट की थी,” रोष झूमते हुए बेडरूम की ओर बढ़ा| “फोकट की हो, तो ज़्यादा क्या, कम क्या?”
“दारु फोकट की थी, शरीर तो अपना था,” ईशा उसके पीछे-पीछे आई| “देखो कैसे बहक रहे हैं कदम!”
“डोल रहे मस्ती में, और जागे भी हैं|” रोष ने उसे अपनी बाँहों में खींच कर कहा| “नाच भी रहे हैं हम, और समाधि में भी हैं| सँभालने वाला कोई हो, तो बहक जाने में भी मज़ा है ...”
“समाधि?” ईशा उसकी गिरफ्त में कसमसाई| “समाधि से तो कोसों दूर हो आप| खुमारी कहो खुमारी ...”
“खुमारी ही कह लो,” रोष खिलखिला उठा| “मेरे लिए ये खुमारी समाधि से कहाँ कम है| ओशो ने एक कविता पढ़ी थी खुमारी पर कभी|”
गीत को उठने दो, साज़ को छिड़ जाने दो...
चुप्पी को छूने दो, लफ़्जों के नर्म तारों को
और लफ़्जों को, चुप्पी की गज़ल गाने दो।
खोल दो खिड़कियाँ सब, और उठा दो पर्दे
नयी हवा को ज़रा, बंद घर में आने दो।
छत से है झाँक रही, कब से चाँदनी की परी
दिया बुझा दो, उसे आँगन में उतर आने दो।
फिज़ां में छाने लगी है, बहार की रंगत
जूही को खिलने दो, चम्पा को महक जाने दो।
ज़रा संभलने दो, मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पाँव, बहक जाने दो।
ईशा मचल कर उसकी गिरफ्त से निकल गयी| वह हँस कर कपड़े उतारने लगा|
“और कहो...” वह शरारत से मुस्कुरायी|
रोष हँसा, और निढाल होकर बिस्तर में धँस गया| उसने आगे कहा:
हँसते ओठों को, ज़रा चखने दो अश्कों की नमी
और नम आँखों को, ज़रा फिर से मुस्कुराने दो।
दिल की बातें, कभी झरने दो हरसिंगारों सी
बिना बातों के कभी, आँख को भर आने दो|
रात को कहने दो, कलियों से राज़ की बातें
गुलों के होंठों से, उन राज़ों को खुल जाने दो|
ज़रा ज़मीं को अब उठने दो, अपने पाँवों पर
ज़रा आकाश की बाँहों को भी, झुक जाने दो|
“और कहो...” वह उसके पास आ बैठी|
"अब पूरी तो ठीक-ठीक याद नहीं," रोष हँसा| "कुछ का कुछ कह जाऊँगा|"
"कह जाओ," ईशा भी हँस पड़ी| "यहाँ कोई नहीं शिकवा करने वाला|"
रोष मुस्कुराया| उसने आगे कहा:
कभी मंदिर से भी उठने दो, अज़ान की आवाज़
कभी मस्जिद की घंटियों को भी, बज जाने दो|
पिंजरे के तोतों को, दुहराने दो झूठी बातें
अपनी मैना को तो, पर खोल चहचहाने दो।
उनको करने दो, मुर्दा रस्मों की बर्बादी का ग़म
हमें नयी ज़मीं, नया आसमां बनाने दो।
एक दिन उनको उठा लेंगे, इन सर आँखों पर
आज ज़रा खुद के तो, पाँवों को संभल जाने दो|
ज़रा सागर को बरस जाने दो, बन कर बादल
और बादल की नदी, सागर में खो जाने दो।
ईशा उससे सट कर लेट गयी थी| रोष की आवाज़ सुनकर, उसके पास लेटकर, उसे छू कर, उससे लिपट कर, उसे बहुत सुकून मिलता था| रोष के हाथ उसके जिस्म पर रेंग रहे थे| उसके ख्यालों से बेखबर, वह कह रहा था:
ज़रा चंदा की नर्म धूप में, सेकने दो बदन
ज़रा सूरज की चाँदनी में, भीग जाने दो।
उसको खोने दो, जो कि पास कभी था ही नहीं
जिसको खोया ही नहीं, उसको फिर से पाने दो|
ये सच है कि हम, हो गए उनके दीवाने
अब उनको भी कुछ, होश में आ जाने दो|
कड़वी ज़रूर है, मय मेरे साकी की
रंग लाएगी, गर साँसों में उतर जाने दो|
छलकेंगे जाम, जब छाएगी खुमारी खुलकर
ज़रा मयखारों के पैमानों को, संभल जाने दो|
ज़रा साकी के, तेवर तो बदल जाने दो...
ईशा साकी बन गयी| रोष तो प्यासा था ही| खुमारी ने चादर फैलाकर दोनों को लील लिया|
रात लम्बी थी, काली| उसकी स्याही में बिस्तर पर बनती बिगड़ती सिलवटें खो गयीं|
‘पियो!’ हवा फुसफुसाई, ‘और जिओ!’
चाँदनी गुनगुना उठी:
न रहे मयखाना, न मैख्वार, न साकी, न शराब
नशे को ऐसी भी, एक हद से गुजर जाने दो|
उनको गाने दो मेरा गीत, अपने होठों से
मुझे उनके सन्नाटे को, गुनगुनाने दो।
गीत को उठने दो, साज़ को छिड़ जाने दो...
गीत बज उठे उस रात| साज़ छिड़े| मय देर तक छलकी| नशा ऐसा छाया कि न मयखाना रहा, न मयखार| न साकी रही, न शराब|
और खुमारी? खुमारी सुबह भी छाई थी| रोष काम पर देर से पहुँचा ...
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