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do you see what i see?अरेबियन नाइट्स किस्से: अली बाबा और 40 डाकू 18 (Ali Baba Aur 40 Daku 18)

 

अलीबाबा हमाम गया, अपने घर के बिन-बुलाये मेहमानों को ख़ामोशी से क़त्ल करते जल्लाद से बेखबर

पिछली कहानी: अली बाबा और 40 डाकू 17

अगली शाम, परिवार फिर से रोष के चारों ओर जुट गया, बेसब्री से ये सुनने की इंतज़ार में, कि जिस अरेबियन नाइट्स किस्से को वो सुना रहा था, उसमें अब आगे क्या होगा|

रोष उन्हें देखकर मुस्कुराया, और उसने कहना शुरू किया:

आधी रात के बहुत बाद, लेकिन भोर से घंटों पहले, अलीबाबा के घर में अँधेरे और सन्नाटे का राज था|

एक लम्बा काला साया मेहमानखाने से उभरा| एक मद्धिम जलता दिया उठाये, वह दबे-पाँव आंगन से होता हुआ, रसोई की तरफ बढ़ा|

“वक़्त हो गया!” रसोई के कुञ्ज में रखे तेल के बैरलों तक पहुँचने से पहले ही, वह उनकी ओर फुफकारा| फुसफुसाहट धीमे स्वरमान में थी, पर थी अर्जेंट|

सब खामोश और अंधकारमय रहा| बहुत खामोश और अंधकारमय| पलक झपकते ही वह समझ गया, कुछ गड़बड़ है| बहुत गड़बड़| अपने अन्दर महसूस किया उसने इसे|

अपने दिए की बेहद मंद रोशनी में उसने बैरलों को घूर कर देखा| फिर, अचानक रुक गया वो|

बैरल के ढक्कन पर चढ़ा चमड़े का स्ट्रेप नदारद था| ‘कैसे? कब? कौन?,’ उसका मन चीख उठा| हज़ार डर बिजली की तरह उसके अन्दर कौंध गए|

आसपास पड़े दूसरे ड्रमों को उसने मंद रौशनी में बारीकी से देखा| उनके चमड़े के कवर भी गायब थे|

तब उसे उसकी गंध आई, और वो जान गया| गंध पहचान गया वो| मौत की गंध| पेशाब की, खून और सड़ते मांस की| ये बू, जिसे वह अच्छी तरह पहचानता था| लेकिन तसदीक ज़रूरी थी| और कोई रास्ता ही न था|

क्रोध और भ्रम से बौराई, काँपती उँगलियों से उसने लकड़ी की पहली बैरल का ढक्कन घुमा कर खोला| उसके अँधेरे गर्भ से अनदेखती आँखों का एक जोड़ा उसे ही घूर रहा था|

अगली बैरल तक कदम बढ़ाकर, उसने उसका ढक्कन घुमाया| जो कभी एक गर्वीला निडर मर्द रहा था, वह उसके अन्दर टुकड़े-टुकड़े पिघल रहा था|

लड़खड़ा कर वह अगली बैरल तक पहुँचा और उसका ढक्कन घुमा कर खोला| फिर अगला, और अगला, और अगला| जब तक कि घुमा कर खोलने के लिए कोई और ढक्कन बाकी न बच गया|

कुछ भी ऐसा नहीं था, जो वो कर सकता| उनमें से किसी के लिए| उसके दोस्त परछाईयों में बिखर रहे थे, अपने ही इंतकाल से अनजान और बेखबर| जो अभी ज़िन्दा थे, वो भी सुबह न देख पायेंगे|

वो मुड़ा, और भाग चला| रसोई से बाहर, आंगन में| एक ही छलाँग में घर की दीवार फांद कर, वो बाहर अँधेरी गली में था|

वो भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा| शहर से बाहर, जंगल में दूर तक| भागता रहा, जब तक कि वो ठोकर खाकर गिर नहीं गया| और तब जाकर, आखिरकार, उसकी करारी हार और उसके ज़बरदस्त नुकसान की अहमियत उससे जा टकराई|

“याल्लाह!” उसने कोसा| “कैसी शैतानियत है ये? और तूने मुझे क्यों बख्श दिया? इस ज़िल्लत के साथ जीने को?”

रोष ने कमरे में नज़र घुमाई| सब ध्यान से सुन रहे थे| कोई कुछ नहीं बोला| उसने आगे सुनाना जारी रखा:

शहर पर सुबह के उतर आने से दो घंटे पहले, अब्दुल्ला उठ बैठा| ध्यान से उसने एक चिराग और अपने मालिक के साफ कपड़े उठाये, अली बाबा के दरवाज़े तक गया और धीरे से दस्तक दी|

अली बाबा तुरंत जाग गया| बिस्तर से उठ कर उसने अंगड़ाई ली| कमरे से बाहर निकला, और अपने पीछे कमरे का दरवाज़ा चुपचाप भेड़ दिया| अब्दुल्ला उसके दरवाज़े के बाहर खड़ा, तसल्ली से उसका इंतज़ार कर रहा था|

अपने पीछे चलते अब्दुल्ला के साथ, वह बाहर का दरवाज़ा खोल कर अँधेरी गली में निकल आया| चुपचाप चलते हुए वे दोनों हमाम की ओर चल दिए, अपने घर में ख़ामोशी से काम करते उस जल्लाद से पूरी तरह बेखबर, जो उनके बिन-बुलाये मेहमानों से उनकी बची-खुची ज़िन्दगी धीरे-धीरे निचोड़े ले रहा था|

अली बाबा हमाम में नहाया| फिर अब्दुल्ला को साथ लिए, भोर से पहले वह घर लौट आया| आँगन में बंधे खच्चर कुछ बेचैन-से लग रहे थे, लेकिन उसने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया|

कुनबा अभी भी सो रहा था| स्नान और सैर के बाद अली बाबा को भूख लग रही थी| अब्दुल्ला के साथ वह रसोई तक आ पहुँचा, ताकि शोरबा फटाफट उसे परोसा जा सके| फिर गंध उससे आ टकराई|

रसोई में घुसते ही उसे तेल की खुली बैरलें दिख गईं, जिनके तेल से सने लकड़ी के ढक्कन सब तरफ बिखरे पड़े थे| बद गुमानी से अचानक भरा, वह कुञ्ज तक आया और सबसे करीबी खुली बैरल में झाँका|

एक जला हुआ मुर्दा अन्दर से उसे घूर रहा था| डर और सदमे से लगभग बेहोश होता, वह लड़खड़ा गया| फिर, कोलाहल मच गया|

जब तक कुनबे के होशो-हवास काबू आये, सूरज क्षितिज के ऊपर झाँक रहा था| अब्दुल्ला ने मरजीना को उसकी अचेतनता से जगा लिया था, लेकिन अली बाबा के सामने पेश करने के लिए उसे उठा कर ले जाना पड़ा|

वह सुस्त थी, और सहारे की उसे ज़रूरत थी| लेकिन वक़्त और शोरबे की मदद से, इतनी तो चेत ही गयी थी कि कम-से-कम कुछ स्पष्टता से पिछली रात किये अपने हैरतंगेज़ कारनामे को बयान कर सके| अली बाबा ने अच्छी तरह उससे पूछताछ की, और उसे मजबूर किया कि वो सब कुछ उसे शुरू से आखिर तक, कई बार बताये|

“अल्हम्दुल्लिल्लाह!” उसने आखिरकार कहा| “अल्लाह हमारी हिफाज़त करता है! साफ है कि जिस आदमी ने कल रात हमारे घर में पनाह ली, वो डाकुओं का सरदार था| साफ है कि हमें क़त्ल करने, और हमारा घर लूटने, वो अपने आदमी यहाँ लाया था|”

“शायद यही डाकू थे, जिन्होंने खड़िया से बार-बार पहले हमारे घर पर निशान बनाये थे| जब मरजीना ने वैसे ही निशान सारे पड़ोसियों के घरों पर भी बना दिए, तो हो सकता है ये चकरा गए हों और अपनी खूनी योजनाओं पर अमल करने में इन्हें देर हुई हो|”

“मुझे इस सब से पहले आगाह न करने के लिए मैं मरजीना को माफ करता हूँ, क्योंकि ऐसा न करने का उसका कारण मैं समझ सकता हूँ| यों ही खतरे के बिगुल नहीं बजाने चाहियें| हर परछाई से घबराएंगे, तो जी ही नहीं पायेंगे| खड़िया के निशान बच्चों की शरारत भी हो सकते थे|”

“लेकिन इन लोगों की हमारे घर में मौजूदगी सब कुछ बदल देती है| तेल के उस मनहूस सौदागर का बच निकलना सब कुछ बदल देता है| अपने और साथियों के साथ मिलकर, न जाने वो अब और क्या करने की फिराक में होगा?”

“खुदा मदद उनकी करता है, जो खुद अपनी मदद करते हैं| इन 37 को मरजीना ने अकेले ही निपटा दिया, इसके लिए मैं उसकी बहादुरी और अक्लमंदी को सलाम करता हूँ| लेकिन अब से, किसी को भी, कुछ भी शक हो, तो मुझे बताना लाज़िमी होगा|”

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