बोधकथा: माँ-बाप का कर्ज़ (Ma-Bap Ka Karz)
क्या ये कभी चुकाया नहीं जा सकता?
कैसा है ये पितृ-ऋण, जो आम आदमी माता-पिता की सच्ची सेवा से भी चुका नहीं पाता?
पिछली कहानी: पढ़ें इस किस्से से पहले की कथा: (अभी अप्रकाशित)
रोष और कोष एक ऑडियो सुन रहे थे| दो आदमी बात कर रहे थे उसमें|
एक कह रहा था, “माता-पिता का कर्ज़ा कोई नहीं उतार सकता|”
“मैंने उतारा है,” दूसरे ने कहा|
“कैसे?” पहले ने पूछा|
“जब वो बहुत बुज़ुर्ग हो गए,” दूसरे ने बताया, “तो मैंने उनकी खूब सेवा की| बुज़ुर्ग और बच्चे में कोई फर्क नहीं होता| वो भी चल नहीं सकते, बच्चा भी चल नहीं सकता| वो भी बोल नहीं सकते, बच्चा भी बोल नहीं सकता| बच्चा बिस्तर पर अपना मल-मूत्र कर देता है, बुज़ुर्ग भी बिस्तर गीला कर देते हैं, खराब कर देते हैं| जब वे बहुत बूढ़े हो गए, तो मैंने उनकी ऐसी सेवा की, जैसे माँ-बाप अपने बच्चों की करते हैं| तो क्या मैंने उनका क़र्ज़ अदा नहीं कर दिया?”
“नहीं,” पहले ने कहा| “बच्चे चाहे जो मर्ज़ी कर लें, मात्र-ऋण और पितृ-ऋण कभी नहीं उतार नहीं सकते|”
“क्यों?” दूसरे ने पूछा|
“सच बता,” पहले ने पूछा, “जब तू इनकी सेवा करता था, और इनका दुःख तुझसे देखा नहीं जाता था, तो क्या तू ये दुआ नहीं करता था, कि इनकी तकलीफों का अंत करने के लिए रब अब इन्हें उठा ले?”
“हाँ,” दूसरे ने हामी भरी, “सोचता तो था| जो मिलने-जुलने वाले उन्हें देखने आते थे, वो भी उनकी परेशानियाँ देखकर यही कहते थे, कि अच्छा हो अगर ईश्वर इन्हें अब अपने पास बुला ले|”
“जब तू छोटा था,” पहले ने कहा, “बीमार हुआ होगा, तो तेरे माँ-बाप ने भी तेरे लिए दुआ ज़रूर माँगी होगी – पर तेरे ठीक होने की, न कि तेरी मौत की|”
“अरे ये छोड़ो, किसी बच्चे को ला-इलाज बीमारी हो जाए, डॉक्टर हाथ खड़े कर दे, माँ-बाप की ज़िन्दगी भर की कमाई उसे चंगा कराने में खप रही हो, तब भी कोई माँ भगवान से अपने बच्चे की मौत नहीं माँगती| और किसी दूसरे की तो मजाल ही क्या कि किसी माँ के सामने ये कह दे कि इसे खुदा बुला ले|”
“फर्क है तेरी सेवा में, और तेरे माता-पिता की सेवा में| उनका क़र्ज़ नहीं चुकाया जा सकता|”
“है विरोधाभासी,” रोष ने टेप रोकते हुए कहा, “पर इसमें मेरे एक द्वन्द का उत्तर तो है| आपने मुझसे कहा था - दुआ कर कि मैं हाथ-पाँव चलते निकल जाऊं|”
“अब कहीं जाकर माँगने की आदत छूट पाई थी, फिर भी आपके कहने से माँगा ये खुदा से मैंने| लगा गुनाह कर रहा हूँ, माँग भी रहा हूँ तो क्या माँग रहा हूँ|”
“ऐसा नहीं है, कि मैं समझता नहीं था कि क्या माँग रहा हूँ, और क्यों माँग रहा हूँ| पर चाहे तेज़, आसान, अच्छी मौत भी माँग रहा हूँ आपके लिए, तो भी जिससे इस दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार किया, उसी की मौत ही तो मांग रहा हूँ|”
“दिमाग कहता था, उनके लिए तोहफा होगा| दिल कहता था, गुनाह होगा| हालाँकि जानता था कि क्यों माँगूं, पर ऐसा मांगने को दिल ही नहीं मानता था| फिर भी कहा था आपने, तो करना ही था|”
“दुआ में हाथ उठाकर माँग बैठा| पर फिर उसके बाद, न जाने क्यों, ऐसा दोबारा कर ही नहीं पाया| फोन पर आपको अपना असमंजस बताया भी था मैंने|”
“इस टेप ने ये तो समझा दिया, कि बुरा लगता क्यों था| प्यार सेवा कर सकता है, मौत नहीं मांग सकता| मौत मांगने के लिए तो प्रेम को करुणा बनना होगा| यानि प्रेम तप कर, निखर कर करुणा बनता है|”
“मैं आपसे प्रेम करता हूँ| करुणा बनने के लिए मेरे प्रेम को जिस आग से गुज़रना होगा, वो इम्तिहान मैं खुदा से क्यों माँगूं? ऐसा बुरा वक़्त आपके लिए मैं क्यों माँगूं|”
“बाकी रह गयी बात ऋण चुकाने की| ऋण तो गणित है केवल| गणित में हेर-फेर नहीं होता, समझ में हेर-फेर होता है| जो बकाया है, वो सूद समेत चुकाया जा सकता है| चुकाते-चुकाते, चुकाए जाने के बाद, बकाया चुक जाता है|”
“गणित में तो 2 और 2 चार ही होते हैं हमेशा| लेकिन जीवन के हिसाब-किताब में धान्धलेबाज़ी कपटी मुनीम, साहूकार, ज़मींदार करते हैं, कि जिनका ऋण कभी चुकता ही नहीं, चाहे जितना चुका लो|”
“पितृ चोर नहीं| भागीरथ ने गंगा धरती पर उतारी, उसके पितृ मुक्त हुए, उसका पितृ ऋण चुका| ययाति-पुत्र पुरु ने चुकाया अपना ऋण| भीष्म ने चुकाया अपना ऋण| श्रवण कुमार ने चुकाया अपना ऋण|”
“पितृ ऋण श्राद्ध से भी चुकता है, ऐसा पंडित कहते है| शास्त्र में इसका विधान है| पर श्रद्धया इदं श्राद्धम्| श्र्द्धा से जो किया जाय, वह श्राद्ध है। प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए, श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए, वह श्राद्ध है।”
“देश-समाज-गुरु का ऋण (ऋषि ऋण) भी चुकता है - वारेन बफे चुका रहा है, बिल गेट्स चुका रहा है, हर कारसेवक चुका रहा है| देव ऋण भी चुकता है - पूजा-अर्चना से, दान-धर्म से, पर्यावरण की देखभाल से| पर ज़रूरी नहीं कि कोई मेरा भला करे, तो मैं केवल उसी का भला करके, उसकी भलाई का ऋण चुकाऊं|”
“जन्म देने वाले का ऋण होता है| पर हर जनक का भी कोई जनक है| इस उधारी की तो लम्बी श्रंखला है| अपने जन्म का ऋण चुकाना है, तो सिर्फ पिता को ही वापिस करके नहीं, पितामह (दादा) को वापिस करके भी चुकता है, प्रपिता (परमपिता) को वापिस करके भी चुकता है|”
“पर ये सब तर्क उसके लिए, जो माने कि ये ऋण हैं| कोई ज़रूरी नहीं, कि पितृ ऋण हो ही| बलात्कारी प्रसूता पर या बलात्कार से उत्पन्न शिशु पर कौनसा उपकार करता है, जिसका ऋण हो?”
“केवल जन्म देने से ही पितृ ऋण हो जाता है क्या? ऋण लेते-देते तो सिर्फ मानवों को सुना, पैदा तो पौधे-जानवर भी होते हैं? क्या वो भी चुकाते हैं अपने पितृ-ऋण? कैसे चुका पाते होंगे? मात्र प्रजनन से?”
“ऋण तो लिया जाता है| विरासत में मिलने वाले ऋण तो अब विकसित समाजों ने सब ख़त्म कर दिए| पर पंडित हैं, कि आदमी को डराए जा रहे हैं, बाज़ ही नहीं आ रहे|”
“इस ऑडियो का वक्ता डरा तो नहीं रहा हमें| पर जाने क्या उल-जलूल अलापे जा रहा है - कि ऋण है भी, चुकाना भी चाहिए, और चुकाए चुकेगा भी नहीं|”
“अरे बावले, जीवन के सारे कार्यकलाप आशा पर चलते हैं| जो ऋण चुकाए जाने के बाद भी कभी चुकता ही न होना हो, उसे चुकाने की कोशिश ही कौन करेगा| ज़रा सोच-समझ के तो थ्योरी बाँच अपनी|”
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