यदि मंज़िल पाए बिना जाना, जीवन व्यर्थ (Jivan Vyarth) हो जाना है, तो ध्येय पाकर जाना भी तो जाना ही है|
क्या जीवन के कर्म-चेष्टा, रेत के घरौंदे बनाने जैसे हैं बस?
पिछली कहानी: रेत के किले
रोष बैठा है, देख रहा है| बालक सागर के पास आ गया है| पास है, फिर भी एक सजग दूरी पर|
ज्ञान है अब| जीवन के लिए जल ज़रूरी है, लेकिन जल से बहुत निकटता जल समाधि बना देती है|
कोई कबीर हो तो परवाह न करे| वो तो पहले ही बाज़ार में खड़ा है, लिए लुकाठी हाथ| आवाज़ दे रहा है, कि बारो घर आपना, चलो हमारे साथ|
पर ये तो बालक है| जीवन के रस में पूरी तरह डूबा| सपने बुनता, रेत के घर बनाता| ये कोई ध्रुव भी नहीं| ये कैसे छोड़ पायेगा| ये कैसे सोच भी पायेगा, छोड़ पाने के बारे में|
बालक बड़े जतन से फिर, अपने सामर्थ्य से भी बड़ी चट्टानों के टुकड़े उठा उठा कर, सागर तट पर दीवार बना रहा है| बाँध बना रहा है| पानी को रोक रहा है - आने से, जाने से|
एकत्र करेगा जल| जीवन| घर फिर बनाएगा| पक्का| सिंचाई का सामान तैयार है| धूप से तमतमाए चेहरे पर लगन के निशान हैं| मन में धैर्य है| जान गया है - घर कैसे बनाएगा, कहाँ बनाएगा|
पर जानने को अभी कितना कुछ शेष है| कोई कबीर काश कहीं मिल जाए उसे, जो सिखा दे कि धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय|
सूरज के जाने का वक़्त हो आया| वह सागर की ओर चल पड़ा| सागर के गर्भ से अनायास एक ऊँची लहर उठी|
पलक झपकते ही वह किनारे तक दौड़ आई और तट की रेत पर कहर बन के गिरी| लौटती लहर जीवन का हर चिन्ह अपने आँचल में छुपा कर ले गयी| घर, बालक| रेत, पत्थर|
रोष अवाक बैठा रह गया| भीगा| तन से अधिक, मन से|
'ये क्या हुआ?' उसने सोचा, 'उस बालक का क्या हुआ? उसके संकल्प का क्या हुआ? उसके संघर्ष का ऐसा निष्ठुर परिणाम| समय के तट पर बैठा मेरा मानस, मेरे ही जीवन के मर्दन को पल-पल देख रहा था क्या?'
'जब तक जीवन है, संकल्प है, संघर्ष है| या फिर जब तक संघर्ष है, संकल्प है, तब तक जीवन के होने का चिन्ह है| उसके होने की आशा है| कर्म के होने से ही जीवन के होने का एहसास है| कर्म का आवश्यक या महत्वपूर्ण होना ज़रूरी नहीं| कर्म का होना ही काफी है| पर्याप्त है|'
'सोचता हूँ, क्या अधूरा था बालक का जीवन? क्या जीवन अतृप्त ही रहता है मरण तक| कैसी ये कोशिश है जो सदा नाकाम ही रह जाती है| मुकम्मल नहीं होती| अंततः मृत्यु की चादर में लिपटी - औचित्यहीन, लाभहीन, दिशाहीन सी लगती है|'
'जीवन व्यर्थ हो गया क्या मेरा? रेत के घरौंदे बनाते| नियति की दीमक चाट गयी चेष्टा की हर चौखट| तो फिर कर्म हो ही क्यों| चेष्टा हो ही क्यों| प्रेरणा कितनी निरर्थक है वास्तविकता में| संघर्ष कितना अनावश्यक|'
'ये ही सोचते-सोचते, सागर पर निश्चय विहीन, उठती गिरती लहरों को ताक रहा हूँ मैं| फिर ये जीवन क्यों है? क्या है? यदि मंजिल पाए बिना जाना, जीवन का व्यर्थ हो जाना है, तो ध्येय पाकर जाना भी तो जाना ही है| जीवन व्यर्थ हुआ या नहीं, इसका निश्चय कौन करेगा|'
'और यदि तुम चले ही गए, तो जो पीछे छोड़ आये हो, या जो अनचाहे पीछे छूट गया है, उसकी नाप तौल से फ़ायदा ही क्या है?'
सूरज ने हताश होकर रोष को देखा और सागर में उतर कर ग़र्क हो गया| स्याही धीरे-धीरे आसमान से उतर कर रोष के अंतर पर पुत गयी|
'मैं बैठा हूँ, अब भी,' रोष को आश्चर्य हुआ, 'क्यों बैठा हूँ अब? अब न सागर दिखाई देता है, न सूर्य| न लहर, न रेत, न मैं| पर मैं तो हूँ| मैं जानता हूँ|'
'कैसे जानता हूँ? क्योंकि साँस चल रही है| उसका शब्द है| खून धमनी में दौड़ रहा है| उसकी गर्मी का एहसास है| मैं चाहूँ या न चाहूँ, मेरे होने का कर्म चल रहा है - अक्षय, अनवरत, अव्यथित, अनासक्त| अनंत है मेरा होना| मैं था, मैं हूँ, मैं रहूँगा| बालक के बाद भी, उसका विचार बनकर|'
अगली कहानी: पढ़ें इस कथा से आगे की कहानी: (अभी अप्रकाशित)