रेत के किले (Ret Ke Kile) बनाते बालकों को लहरें सिखा देती हैं जल्दी, कि किले बनाना आसान है, बनाकर उन्हें बचाए रखना मुश्किल|
बड़े होने पर ये भूल क्यों जाते हैं हम?
पिछली कहानी: पढ़ें इस कथा से पहले की कहानी – तुम थूको, मैं झुकूँगा | Tum Thuko, Main Jhukunga (अभी अप्रकाशित)
गोवा की चमचमाती रेत पर अकेला लेटा रोष, आस पास की हर हलचल से अनजान था| धूप खिली थी| समुद्र के किनारे तक लहर दर लहर आती, लौट जाती|
मंडोवी नदी (Mandovi River) के मुहाने से सटी, ये करन्ज़लेम बीच (Caranzalem Beach), सैलानियों से अब तक अनजान थी|
पणजी (Panaji) से पाँच किलोमीटर दूर, मीरामार बीच (Miramar Beach) के पश्चिम में छुपी, इस अनदेखी बीच के बारे में उसने कल ही एक मछुआरे से सुना था|
बीच मीरामार - डोना पौला रोड (Donna Paula Road) के समानांतर थी| बीच के किनारे लगे कैसुरिना पाइन (Casuarina pines) और पाल्म (Palms) के पेड़ मंद हवा में अलसाए से झूम रहे थे|
बीच साफ़ सुथरी थी, शायद इसलिए कि काबो राजभवन (Governor's Residence) यहाँ से थोड़ी ही दूर था|
लगभग 3.5 किलोमीटर लम्बी इस बीच पर आज सुबह सवेरे पहुँच कर, नंगे पाँव चलने में उसे बहुत मज़ा आया था| फिर कपड़े उतार कर वह समुद्र में उतर गया था, और करीब एक घंटे तैरा था|
हालाँकि तैरने के किसी खतरे के बारे में, पूरी बीच पर कहीं कोई चिन्ह नहीं लगा था, फिर भी क्योंकि तैरने में वह माहिर न था, इसलिए अंतर्धारा महसूस होते ही वह किनारे वापिस लौट आया था|
अब सूरज निकल आने पर, अलसाया-सा रेत पर पड़ा, वह सूर्य स्नान कर रहा था|
'अगर मेरा बचपन यहाँ बीता होता, समुद्र के पास,' उसने सोचा, 'तो कैसा होता? मैं रोज़ यहाँ आता, घरोंदे बनाता| कितना आनंद आता|'
'और कोई लहर आकर उन्हें उजाड़ जाती,' मन ने जवाब दिया| 'जैसे मौत जीवन को उजाड़ जाती है| किले बनाना आसान है, बनाकर उन्हें बचाए रखना मुश्किल| बड़े होने पर ये भूल क्यों जाते हैं हम?'
सोचते सोचते रोष की आँख लग गयी| मस्तिष्क पूर्व अनुभवों से धागा लेकर सपने पिरोने लगा| उसने देखा, एक एकाकी बालक गीली बालू से रेत का घर बना रहा है| देर तक लगा हुआ| मेहनत मेहनत नहीं महसूस होती| आनंद लगती है|
समय का बीतना - धीरे धीरे - पल पल - दिखाई ही नहीं देता| घर बनाता जा रहा है - उबड़ खाबड़| फिर एक लहर आती है| ले जाती है सब कुछ| घर का कोई निशाँ पीछे नहीं छोड़ जाती| बालक हतप्रभ-सा, सागर को ताकता रह जाता है|
रोष भी वहीं बैठा है, देख रहा है| बालक फिर नए जोश से लग गया है| नया घर| नयी बालू| नयी जगह| नन्हे-नन्हे हाथ| बालू को मुट्ठियों में भींच कर उठाते, गोला बनाते| इकठ्ठा करते, थपथपाते| नया जोश है| नयी प्रेरणा| सपनों का महल फिर से जीवंत होता देख, नन्हे नन्हे होठों पर एक हल्की मुस्कान फिर जन्म ले रही है|
सूरज भी आसमान में उठ रहा है, बालक तो एकटक निहारता| पृथ्वी को ऐसे ही स्रजन्हारों की तो आवश्यकता है| लेकिन फिर एक लहर आती है| और स्वप्न महल फिर धराशाई| बालक रुआंसा हो बैठ गया है|
रोष भी बैठा है, देख रहा है| बालक थोड़ा ऊंचाई की ओर बढ़ गया है अब| दूर से उसका चेहरा कुछ प्रौढ़ सा दिखने लगा है| बार-बार समुद्र तक जाता है| गीली बालू को मुट्ठी दर मुट्ठी उठा-उठा कर वापिस भागा आता है|
फिर रेत के एक महल का जन्म हो रहा है| पहले से अधिक विशाल| दुर्ग जैसा अभेद्य| और खतरे से दूर| सागर से दूर| सागर ही तो खतरा है| इस बार कोई क्षति नहीं होने दूंगा - ये प्रण है| प्रतिज्ञा है| ये है विश्वास, आशा, जीवन| बार बार जीवन की असीम जीवंतता, लहर बन कर हर बाधा को लांघ जाती है| स्रजन के लिए सामान छोड़ जाती है|
दूर से कुछ बच्चों का झुण्ड लड़ता-झगड़ता दौड़ा आ रहा है| घर की ओर| घर को देखे समझे बिना, अनजान पैर उसे रौंद जाते हैं| आगे बढ़ जाते हैं - अनजान किसी घट गयी दुर्घटना से, अनछुए किसी ग्लानि के भाव से| लेकिन पीछे रुदन छोड़ जाते हैं|
रोष अब भी बैठा है, देख रहा है| सूर्य आसमान में दमक रहा है| बालक के आँसू सूख चुके हैं| वह फिर गीली बालू इकट्ठी कर रहा है| लेकिन अब घर छोड़ कर ज़्यादा देर दूर नहीं रहता| जल्दी लौट आता है| घर के पास| अपने दुर्ग के पास| उसकी रक्षा को हरदम तत्पर, तैयार|
समझ गया है कि रेत के किले बनाने जितना ज़रूरी है उन किलों को बचाना| स्रजन के साथ-साथ उसकी रक्षा का भार भी संभालना होगा|
सूरज आसमान की सीढ़ियाँ उतरने के बारे में सोचता हुआ, बालक को घूर रहा है| उसके तेज से बालू तेज़ी से सूख रही है| सूखी बालू अपने ही भार से अपने ऊपर गिरी-गिरी जाती है| सागर से दूरी इस घर की मौत है| जीवन सागर के पास है| सागर की भेंट|
इस रेत के महल को छोड़ना होगा| सागर के पास लौटना होगा| बालक बार-बार अपनी छोटी सी अँजुली में सागर का जल भर-भर कर लाता है| सूखते घर पर छिड़कता है| पर रेत ने कहाँ कभी देर तक जल को थामा है| धँसा हुआ घर कितनी देर तक टिकेगा?
एक आखिरी दृष्टि अपने धंसते रेत के दुर्ग पर डाल, बालक लौट पड़ता है - सागर के पास|
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