दिलचस्प कहानी: संदर्श समझ लो (Sandarsh Samajh Lo)
पढ़ाई इतनी मुश्किल क्यों होती है? काम इतने मुश्किल क्यों लगते हैं? मार्केटिंग आसान कैसे करें?
परिपेक्ष्य पकड़ लो
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“पढ़ना कितना मुश्किल है!” सनी ने मुँह बिचकाते हुए कहा| “पढ़ाई इतनी मुश्किल क्यों होती है?”
“गलत सवाल,” रोष बोला| “कुछ भी सीखना न तो मुश्किल है, न आसान| सिर्फ मज़ेदार है, या ऊबाऊ| और ये निर्भर करता है इस बात पर, कि तुम उसे देखते कैसे हो|”
“क्या मतलब?” सनी ने पूछा|
“खूबसूरती ताड़ने वाले की निगाह में होती है,” रोष हँसा| “कुछ सीखने में मज़ा आएगा या बोरियत होगी, ये तुम्हारे नज़रिए पर निर्भर है| तुम्हारे लक्ष्य पर| कि तुम उसे सीखना क्यों चाहते हो|”
“क्यों करना चाहते हो ये कोर्स?” उसने पूछा|
तीनों दोस्त आज फिर इकट्ठा हुए थे, अपने ग्रुप डिस्कशन सेशन के लिए|
“पास होने के लिए,” सनी ने कहा| “ताकि मुझे अपना डिप्लोमा मिल जाए|”
“इसीलिए तो इतना मुश्किल है ये,” रोष ने कहा| “ऐसा लगता है जैसे असल में जो पाना चाहते हो, उसे पाने के लिए ये कोई काम है, जो तुम्हें करना पड़ रहा है| रईस होना चाहते हो, लेकिन उसके लिए, पहले तुम्हें अच्छी नौकरी चाहिए|”
“प्लेसमेंट अच्छी चाहते हो, लेकिन उसके लिए, पहले अच्छे मार्क्स और ये डिप्लोमा चाहिए|”
“अच्छे अंक और डिप्लोमा चाहते हो, पर उसके लिए पहले ये मोटी-मोटी किताबें घोटनी होंगीं|”
“हाँ,” सी.के. हँसा| “इस फिलिप कोटलर का साइज़ तो देखो| पूरी दो किलो की होगी| मेरी तो पूरी ज़िन्दगी निकल जायेगी, इसका 756 पेज का मार्केटिंग गोबर पचाते-पचाते|”
“756 पेज से कम हैं, भाई,” सनी ने मदद करने के लिए सी.के. की बात सुधारी| “आगे और पीछे के कवर पे रटने को कुछ नहीं है, और न ही इंडेक्स और शब्दावली में है| यानि 20 पेज कम पचाने पड़ेंगे|”
“अगर तुम्हारा बस चलता,” रोष ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, “तो तुम मार्केटिंग बिलकुल नहीं पढ़ते| ये वो चीज़ नहीं, जो तुम करना चाहते हो| सिर्फ वो है, जो दूसरे तुमसे करवा रहे हैं| उसमें मज़ा कहाँ?”
“चीज़ों में मज़ा नहीं आता, वो काम बन जाती हैं, अगर न चाहते हुए भी, हमें उन्हें करना पड़े| हमें वो चीज़ें पसंद ही नहीं आतीं, जिन्हें हम करना नहीं चाहते|”
“हम करना वो चाहते हैं, जिसमें हमें मज़ा आता है| वो नहीं करना चाहते, जो मज़ेदार नहीं है, जो काम का नहीं है| चीज़ें हमारे लिए मज़ेदार, हमारे लिए उपयोगी नहीं होतीं, जब तक हम ये नहीं जानते, कि हम उनसे कर क्या सकते हैं|”
“पहले ये पता करो, कि चीज़ों से तुम कर क्या सकते हो| फिर जान पाओगे कि तुम उन्हें करना भी चाहते हो, या नहीं| रस उन कामों को करने में आता है, जो हम करना चाहते हैं| और आता तब है, जब हम उन्हें करना चाहते हैं|”
“जब हम ये जान जाते हैं कि हम क्यों कुछ करना चाहते हैं, तो उसे करें कैसे, ये जानना ज़्यादा आसान हो जाता है| तो मार्केटिंग सीखने से पहले, तुम ये सोचो कि मार्केटिंग सीखने में तुम्हारा फ़ायदा क्या है|”
“इसीलिए कह रहा हूँ, कि सीखना मस्त होगा या उबाने वाला, ये तुम्हारे संदर्श पर निर्भर करेगा| असल में, हमारे दृष्टिकोण से हमारी पूरी ज़िन्दगी ही मस्त या बोरिंग बन जाती है|”
“मनोविज्ञान (साइक्लोजी) के एक प्रोफेसर ने ब्लैकबोर्ड पर ये शब्द लिखे: ‘नारी बिना नर कुछ नहीं’, और अपने छात्रों से कहा कि वे इसे ठीक से विराम देकर इसकी व्याकरण सही कर दें|”
“आदमियों ने किया: नारी, बिना नर, कुछ नहीं!”
“औरतों ने किया: नारी बिना, नर कुछ नहीं!”
“बोर्ड पर क्या लिखा था, ये अपने आप में सार्थक नहीं था| उसे देखने के तरीके ने उसे सार्थक कर दिया| उसने सब कुछ बदल दिया| नज़र ने शब्दों को अर्थ दे दिया| हमारा परिपेक्ष्य ही सब कुछ है!”
“ये चीज़ों को हमारे लिए मस्त या बोरिंग बनाता है| उन्हें मुश्किल या आसान दिखाता है| ये हमसे वो करवाता है, जो हम करना चाहते हैं| और उसे करते हुए हमें आनन्द होगा, या पीड़ा, ये तय करता है| कुछ करना क्यों चाहते हो, ये जान लो| इससे उसे करना आसान हो जाएगा|”
“क्यों?” सनी ने पूछा| “क्या हो जाता है जब हम अपना मकसद जान जाते हैं? प्रबुद्ध हो जाते हैं?”
“फिल्मों में जब बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होता है,” रोष फिर हँसा, “तो देवता फूल बरसाते हैं| फिल्मों में जब लड़का लड़की से मिलता है, तो प्रेम वातावरण में दिखता है, पृष्ठभूमि में वायलिन बजते हैं|”
“अफसोस, ये नाटकीयता असल जीवन में नहीं होती| परिवर्तन सहज होता है, बेआवाज़ होता है| जब तुम्हें अक्ल आएगी, जब तुम्हें पता चलेगा, कि तुम कुछ करना क्यों चाहते हो, तो तुम्हारे आस-पास कोई औरस (aura) नहीं दिखाई देने लगेगा| पृष्ठभूमि में कोई गाना नहीं बजने लगेगा| कोई आतिशबाज़ी नहीं होगी| कोई फूल नहीं झरेंगे|”
“ऐसे नहीं होता ये| जब तुम प्रबुद्ध हो जाते हो, तो ऊपर कोई देवता गण जश्न नहीं मनाते| वे उस घड़ी का उत्सव मनाना भी चाहें, तो भी उन्हें हमारी ही ज़रूरत पड़ेगी, उनके लिए ये सब करने के लिए| उन्हें हमें ही प्रेरित करना पड़ेगा, ताकि हम उनके साधन बन सकें| अपनी तोपें दाग कर सलामियाँ दे सकें|”
“अगर उन्होंने ये सब कुछ खुद कर भी लिया, जैसे बिजली चमकी, बादल गरजे, बरसे, धूप तेज़ चौंधियाई, या हवा मंद या तेज़ बही, तो भी मुझे नहीं लगता कि हमें भनक लगेगी, कि हमारी प्रबुद्धता पर ये जश्न है उनका|"
“फिर भी, इसकी परवाह किये बिना कि इस अवसर को मनाने के लिए वे क्या करेंगे या क्या नहीं, तुम्हारी दुनिया तो बदल ही जाती है| क्योंकि तुम्हारी नज़र बदल गयी है|”
“दुनिया में खुद कुछ नहीं बदलता, मसलन पेड़ और हरे नहीं हो जाते| मगर तुम उनके साथ क्या करना चाहते हो, क्या कर सकते हो, वो सब बदल जाता है|”
“मैं तुम्हें ये बता सकता हूँ कि मार्केटिंग पढ़नी कैसे है, मगर मार्केटिंग पढ़ना चाहने भी लगो तुम, ये मैं नहीं कर सकता|”
“मार्केटिंग अपने आप में मुश्किल नहीं| बहुत आसान है| सिर्फ ये जानना है कि तुम्हारे लक्षित उपभोक्ता कौन हैं, उनकी साइक्लोजी समझनी है, और उनकी ज़रूरत पूरी करने की इच्छा रखनी है|”
“मुश्किल है ये तय करना, कि तुम्हें करना क्या चाहिए और क्यों| उसके बाद उसे कर गुज़रना तो आसान है| जो भी पाना है, उसके लिए आमतौर पर सटीक तकनीकें होती हैं, जिनका पालन किया जा सकता है| उन्हें करो, सफलता चखो| इतनी सी बात है|”
“अगर ध्यान इस बात पर केन्द्रित रहे, कि मार्केटिंग तुम्हारे लिए क्या कर सकती है, तो इसमें महारत हासिल करने में लगे ही रहोगे तुम| तब कितनी भी मुश्किलें आयें, मंज़िल पा ही जाओगे| लेकिन करना क्यों चाहते हो इसे, अगर इससे ध्यान हटा, तो इसे पाने के लिए जो जुनून चाहिए, वो नहीं रहेगा|”
“संदर्श समझ लो, कोटलर पा जाओगे| अब तुमसे मैं पूछता हूँ, क्या लगता है, मार्केटिंग क्या कर सकती है तुम्हारे लिए? ज़रूरत है तुम्हें इसकी?”
“बेचने में ये मेरी मदद कर सकती है,” सनी ने सावधानी से कहा, “और इसलिए ... ज़रूरत तो पड़ेगी इसकी|”
उसने खुलासा नहीं किया कि ज़रूरत पड़ेगी क्यों| पर रोष ने बात पर ज़ोर नहीं दिया| ये सनी के लिए मखौल नहीं था| उसे मार्केटिंग में वाकई दिक्कत हो रही थी| और वो सही भी था| अपने डिप्लोमा के लिए मार्केटिंग तो पास करनी ही पड़ेगी उसे|
“बस तो!” रोष उठ खड़ा हुआ, और बड़ी गर्मजोशी से उसका हाथ मिलाकर, उसने उसके इस अहम एहसास का जश्न मनाया| “सही रास्ते पे हो, दोस्त| कैसे बेचें, इसके इतने राज़ हैं उस किताब में, तुम एक बार पढ़ लोगे तो किताब ही नहीं छोड़ोगे| खुद को मार्केट करते पाओगे छोरियों को, टीचरों को, आकाओं को, देखते जाओ|”
‘दिलचस्प,’ सनी ने सोचा, और उसका मूड एकदम सुधर गया| अजीब बात थी, कि दिन अब उजाले से भरपूर लग रहा था|
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