महाभारत और आधुनिक भारत (Mahabharat Aur Bharat) के पात्रों की तुलना|
दुर्योधन और राहुल गाँधी, अर्जुन और नरेन्द्र मोदी, कर्ण और मनमोहन सिंह, शकुनि और केजरीवाल, ध्रतराष्ट्र और सोनिया, भीष्म और आडवाणी, कृष्ण और अब्दुल कलाम, महात्मा गाँधी, चाणक्य आदि
पिछली कहानी: चिंता-गुड़िया ले लो
रोष का स्मार्टफोन बज उठा| उसने सन्देश चेक किया| धीर का, परिवार के ग्रुप के नाम, व्हात्सप्प (Whatsapp) पर एक फ़ॉर्वर्डेड मेसेज था|
ये उन मज़ाकिया संदेशों में से था जो आपको अपने ऑनलाइन समूहों में से किसी एक से मिलता है, और जिसे आप आगे अपने दोस्तों या परिवारजनों को भेजने का फैसला करते हो क्योंकि ये आपको पसंद आया| लिखा था:
दुर्योधन और राहुल गाँधी: दोनों प्रतिभाहीन| फिर भी दोनों जन्म-सिद्ध अधिकार से राज करना चाहते थे|
भीष्म और आडवाणी: कभी ताजपोशी नहीं हुई| इज्ज़त मिली, फिर भी जीवन के अंत में लाचार हो गए|
अर्जुन और नरेन्द्र मोदी: दोनों प्रतिभावान| धर्म के पक्ष में होने से बुलंदी को छुआ| लेकिन एहसास हुआ कि कितना मुश्किल है इसपर चलना और इसका पालन करना|
कर्ण और मनमोहन सिंह: दोनों बुद्धिमान| लेकिन अधर्म के पक्ष में होने से कहीं पहुँच नहीं सके|
शकुनि और केजरीवाल: दोनों कभी युद्ध नहीं लड़े, बस ओछी चालें ही चलते रहे|
ध्रतराष्ट्र और सोनिया: दोनों अपने पुत्र मोह में अँधे|
कृष्ण और अब्दुल कलाम: मानते हम दोनों को हैं लेकिन मानते हम दोनों की नहीं| जो प्रचार उन्होंने किया, जो सिखाया – उसका अनुसरण नहीं करते|
ये है महाभारत और भारत|
आमतौर पर रोष Whatsapp से फॉरवर्ड किये गए सन्देशों पर टिप्पणी नहीं करता था, पर ये मेसेज नटखट था| जाने क्यों, उसके भीतर रचनात्मकता कुलबुलाने लगी|
उसने एक छोटा सा जवाब टाइप करना शुरू किया, लेकिन पाया कि एक घंटे बाद भी, वह अभी बाइट्स भेजे जा रहा था| क्या लिख भेजा है उसने, ये पढ़ने के लिए उसने ऊपर स्क्रॉल किया:
राहुल गाँधी के बारे में तो पता नहीं, पर सुयोधन बहुत प्रतिभाशाली था| वह एक महान योद्धा, राजनीतिक पैंतरेबाज़ और सेनापति था| कर्ण का हुनर पहचानने की अक्ल थी उसमें, कूटनीतिक दबाव के बावजूद सबके सामने उसकी प्रतिभा को मानने और इज्ज़त देने की हिम्मत, और उससे दोस्ती करने की सूझबूझ|
अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और निग्रह के बावजूद, भीष्म, द्रोण और कई दूसरे महान योद्धा महाभारत युद्ध में सुयोधन की तरफ से लड़े| इसमें कुछ कूटनीति तो लगी होगी|
अगर ताजपोशी नहीं हुई का मतलब ये है, कि अपनी योग्यता के बावजूद भीष्म और लाल कृष्ण आडवाणी ने नेतृत्व राजा की तरह नहीं, बल्कि सिर्फ राजा बनाने वाले की तरह किया, तो ये तुलना गाँधी या चाणक्य से करनी ठीक होती, यहाँ तक कि सोनिया गाँधी से भी, क्योंकि आडवाणी तो असल में अटल बिहारी वाजपेयी के किंगमेकर कभी नहीं रहे| बाकी तो किंगमेकर रहे थे (क्रमशः जवाहर लाल नेहरु, चन्द्र गुप्त मौर्य और मनमोहन सिंह के)|
भीष्म की तुलना आडवाणी से करने में और समस्या ये भी है कि भीष्म ने तो प्रतिज्ञा की थी, राजा की सदा सेवा करने की और जीवन पर्यन्त कभी स्वयं राजपद न लेने की, जो कि गांधी और चाणक्य की तरह ज़्यादा है| अडवाणी दूसरी ओर, राजा बनना चाहते थे| उन्होंने तो खुद भारत के प्रधान-मंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी कई बार घोषित की|
गाँधी और चाणक्य की तरह, भीष्म भी जीवन भर उन राजाओं से ज़्यादा शक्तिशाली रहे, जिन्हें खुद उन्होंने राजा बनाया था| यहाँ तक कि उनके मृत्यु-शैया पर लेटने के बाद भी ताकतवर लोग उनसे मिलने आते ही रहे| ये लाचारी तो नहीं!
असल में, मरते भीष्म ने दिखा दिया कि न सिर्फ उनके पास अपनी खुद की मृत्यु का समय और तरीका चुनने की ही शक्ति थी, बल्कि अपनी चुनी हुई घड़ी तक जीने की इच्छा और क्षमता भी थी|
तो, अगर ‘लाचारी’ से इशारा केवल उनकी शारीरिक दशा की तरफ था, केवल उनकी मौत के वक़्त, तब भी आडवाणी के साथ की गयी उनके ‘जीवन के अंत’ की तुलना गलत ही है| आडवाणी तो अभी जिंदा हैं!
मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता कि अर्जुन या मोदी धर्म के पक्ष में बाकियों से ज़्यादा थे कि नहीं| वे दोनों जीते, ये तथ्य है| ये उन्हें विजेता तो बनाता है, लेकिन क्या इससे ये भी सिद्ध होता है कि वे औरों की तुलना में धर्म के पक्ष में ज़्यादा थे? मेरी निगाह में तो नहीं|
सत्यमेव जयते कहते हैं, पर जीवन में मैंने तो जयते इति सत्यः देखा है। ये भी भूलना नहीं चाहिए कि ज़्यादातर इतिहास विजेताओं ने लिखवाया है| इससे ये कहानी एक तरफा हुई| किसी निर्विरोध कहानी का इस्तेमाल कुछ भी साबित करने के लिए कैसे किया जा सकता है, किसी की नैतिकता साबित करने की तो बात ही छोड़ो?
सत्य की जीत हो, ये एक आशा है| लेकिन जो जीतता है, आमतौर पर सत्य उसी को मान लिया जाता है|
इसी तरह, ये फैसला कैसे, कब और किसने कर लिया कि और पात्रों के मुकाबले कर्ण और मनमोहन सिंह अधर्म के पक्ष में अधिक थे? अगर बुराई उपलब्धि के लिए इतनी ही बड़ी बाधा है, तो दुनिया भर में, भौतिक सफलता पाने के लिए ये सबसे प्रचलित साधन क्यों है?
चाहे कर्ण या मनमोहन सिंह अधर्म के पक्ष में थे या नहीं, ये निष्कर्ष कि वे कहीं पहुँचे ही नहीं, तो कोरी बकवास है| वो जहाँ थे, वहाँ होने की वजह से एक राजा और महाभारत का सेना नायक बना, और दूसरा भारत का नायक और प्रधान मंत्री|
Whatsapp का ये प्रेषक कहता है कि शकुनी और केजरीवाल कभी युद्ध नहीं लड़े| वाकई? अब मुझे शक होने लगा है कि ये पोस्टर भारत या महाभारत में से किसी के बारे में भी कुछ ज़्यादा जानता है कि नहीं?
शकुनि अपना पूरा वयस्क जीवन युद्ध ही लड़ता रहा, शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी| वो पूरी तरह लड़ा, समग्रता से| ऐसा, जैसा महाभारत का कोई दूसरा पात्र कभी लड़ा ही नहीं|
वो युद्धभूमि पर ही रहने आया था| और मरा भी युद्ध भूमि पर ही, लड़ते हुए| ओछी चालें युद्ध का ही एक साधन है, या इस समीक्षक ने सुना नहीं कभी कि प्यार और जंग में सब जायज़ है!
केजरीवाल हरियाणा के एक माध्यम-वर्गीय परिवार से आया, सोनीपत और गाज़ियाबाद की गलियों में पला-बढ़ा, आई आई टी (IIT) खड़गपुर से स्नातक हुआ, और दिल्ली का मुख्यमंत्री बना| उसके बारे में कोई कुछ भी और कहे, लेकिन उसपर कभी कोई लड़ाई न लड़ने का आरोप लगाना तो हास्यप्रद होगा| सारे युद्ध शारीरिक तो नहीं होते|
2006 में उसे रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, भ्रष्टाचार के खिलाफ जानकारी-का-हक कानून (राईट-टू-इन्फोरमेशन) इस्तेमाल करते हुए, एक अभियान (परिवर्तन) में उसकी भागीदारी के लिए|
अपनी पुरस्कार राशि उसने बाद में पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन, एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ), की स्थापना करने के लिए एक कोष निधि के रूप में दान कर दी|
वर्ष 2012 में, दिल्ली में आयकर के इस पूर्व संयुक्त आयुक्त ने आम आदमी पार्टी शुरू की| जब 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में इसकी पार्टी जीत गई, तो यह दिल्ली का मुख्यमंत्री बना|
49 दिन बाद ही इसने इस्तीफा दे दिया, ये कहते हुए कि यह ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि अन्य राजनीतिक दलों से समर्थन की कमी की वजह से इसकी अल्पमत सरकार, अपने प्रस्तावित भ्रष्टाचार विरोधी कानून को पारित कराने में असमर्थ है|
जब इसकी पार्टी 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में फिर से जीती, तो अपने दूसरे कार्यकाल के लिए इसने दूसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली|
हाल की हिंदी फ़िल्में ‘एक आम आदमी की ताकत को कम मत समझो’ इस पंचलाइन के कई रूपांतर इस्तेमाल कर रही हैं| मैं सोचता था कि ये सब अन्ना हजारे और केजरीवाल जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के काम और सफलता से प्रेरित हो कर था|
अन्ना हजारे के साथ राष्ट्रीय स्तर पर सूचना के अधिकार अधिनियम के लिए केजरीवाल ने पहले एक अभियान में काम किया था (जो 2005 में लागू भी हुआ)| क्या ये इनके कारनामे नहीं थे जिन्होंने ‘आम आदमी’ शब्द को खास बना डाला?
और क्या हुआ अगर धृतराष्ट्र और सोनिया दोनों अपने पुत्र मोह में अँधे थे! कौन माँ-बाप नहीं हैं? सभी माता-पिता अपने बच्चों से प्यार करते हैं, है कि नहीं? प्यार तो अँधा होता है, है कि नहीं? फिर, सिर्फ धृतराष्ट्र और सोनिया पर की ऊँगली क्यों उठाई जाए|
मानते न हम कृष्ण को हैं, न कलाम को! अगर मानने का मतलब किसी व्यक्ति को महान सामाजिक महत्व देना है, तो अब्दुल कलाम तो क्वालीफाई ही नहीं करते, व्यक्तिगत तौर पर मैं उन्हें कितना ही महान क्यों न समझूँ|
एक रॉकेट वैज्ञानिक, जो भारत के राष्ट्रपति बन गए| आज कौन परवाह करता है? कइयों ने तो उनका नाम भी नहीं सुना, भारत के अन्दर भी|
जल्दी ही बिसरे इतिहास का हिस्सा हो जायेंगे वे, हम सब से कुछ ही बेहतर, जो इतिहास की किताब तक अपना नाम दर्ज कराने पहुँच ही न सके|
अगली कहानी: पढ़ें इस किस्से से आगे की कथा: अब्दुल कलाम (अभी अप्रकाशित)